शेर(मैं शायर अनजान)


  मैं शायर अनजान

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मुझे मरघट की हवा इंसानी आबादी से 

सुकून बार लगी,

यहां जातिवाद और ऊंचनीच की 

गुंजाइश न थी,

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त्रिपुंडधारी पुजारी भी मरा शूद्र भी मरा,

पर मरघट ने भेद ना किया जमीं बराबर दी,

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मेरे दर पर शान बराबर रहती है सबकी,

इसलिए मुझे शम+शान कहा जाता है,

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खून को लेने की मसक्कत ब्लडबैंक के द्वार थी भारी,

मैने जातियों के हिसाब से खून लें नोटिस 

लगा दिया,

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ट्रेन और बस में सटे सटाये बैठे हैं आदमी,

पास पास बहुत थे पर साथ कोई एकअदद,

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आदमी की औकात दो गज जमीन की भी नही,

जमीन का टुकड़ा अपने नाम ना करा सका कोई,

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गरीब की आह और कराह से कमाया धन,

एक दिन सन्तान को ले डूबता है ध्यान रहे,

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तेरा रुतबा तेरी हनक और पद रुआब,

कुछ दिनों के बाद जमीदोज हो जाएगा, 

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मिट्टी एक दिन बोली गुरूर में चूर आदमी से,

तू भी मिट्टी है मिट्टी में मिलने के लिए तैयार रह,

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बहुत वेवश है सदा से तू घमंडी आदमी ,

सांस सांस को मोहताज है फिर गुरूर क्यों,

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इंसान ढूढने की मसक्कत करता रहा यूँहीं,

इक अदद आदमी मयस्सर ना हुआ दौरे जहाँ,

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शिव शंकर झा"शिव"

स्वतंत्र लेखक

शायर

व्यंग्यकार

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