संस्मरण(मैं और नदी का प्रचंड वेग)

 

                

  **संस्मरण**                        

          मैं और नदी का प्रचंड वेग

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    मैं किशोर अवस्था की दहलीज पर था,दसवीं का छात्र(वर्ष१९९७) बड़े भाई साहब अवकाश पर गांव आये हुए थे वह केंद्रीय बल में सेवारत थे माह था आषाढ, सावन घनघोर वर्षाकाल का उन्हें किसी दवा की आवश्यकता थी। 

     माता जी ने उनका स्वास्थ्य हाल पूछा और मुझे झट से आदेश दे दिया तुम स्कूल से लौटो तो भावली से वैध जी से दवा ले आना भूलना नहीं मैं अपने दिनचर्या अनुसार पूर्व की भांति विधालय आया और पठन पाठन करके छुट्टी के बाद चल पड़ा घर अपनी प्यारी साइकिल पर सवार हो कर मैं अपनी मस्ती में मगन साइकिल को गतिमान करता हुआ चला जा रहा था

   मैं लगभग अपने गांव के पास पहुंचने बाला ही था तभी अचानक माता जी का आदेश याद आगया मुझे वैध जी से औषधि लानी है और वापिस साइकिल घुमा दी वैध जी के गांव की तरफ लगभग ५ किलोमीटर की दूरी तय करते हुए,ढूढ़ते डाँड़ते वैध जी की झोपड़ीं पर पहुच गए,उस समय वैध जी कुछ अस्वस्थ से थे। 

     किंतु मेरे आग्रह पर वह औषधि ढूढ़कर ले आये औषधि देते हुए मुझे प्रयोग की बिधि बता दी और कहा संभालकर ले जाना और तुम भी साइकिल धीरे धीरे ले जाना ठीक है वैध जी कहकर मैं चल पड़ा।

  अब मेरा वालमन सोचने लगा अगर घूमकर जायेगे तो फिर ५ किमी का चक्कर लगाना पड़ेगा और अगर सामने जो नदी है जहां से गांव ही नही घर भी दिखता है वहां से जायेगें तो थोड़े से समय में पहुंच जाएंगे क्यों न उसे पार करते हुए घर पहुच जाएं। निर्णय हो गया मन ने मन का आदेश मान लिया गया। 

     साइकिल की सवारी करते हुए झट से नदी के वेगवान तीव्रधारा प्रवाह और भरपूर जवानी के आगोश में डूबी नदी के  तट पर पहुंच गए नदी के तट से jगॉव और घर दृष्टिगोचर हो रहा था। 

     नदी अपने दोनों तटों को पुरजोर ताकत के साथ तोड़ने का मन बना रही थी उसे अपने यौवन पर भरपूर दर्प हो रहा लगता था ऐसा विदित होता था अब वक्त था चिंतन का है निर्णय का नहीं!

       लेकिन  किशोरावस्था किसकी सुनने बाली थी वह जबानी में चूर तो हम भी जबानी की दहलीज पर थे निर्णय हो गया चलो तीव्र धार को चीरते हुए गॉव पहुचते हैं मन उसकी शक्ति और गहराई का सही आंकलन नहीं कर पाया था पूरी तैयारी कर ली गयी चलो नदी पार करते हैं।

      सह साइकिल,स्कूल बैग नदीं पार करने की,पेंट मौजे उतार कर थैले में भरे और जूते हाथ में पहला चरण जैसे ही नदी में पड़ा रूह कांप गई वह सच में चंचल यौवन से भरपूर थी वह टकराने का मन बना चुकी थी मेरे अंतर्मन में विचार कौंधा कैसे पार करेंगे इसे,

    लेकिन हिम्मत ने साथ दिया कि नदी पार करनी है तो करनी है जबकि मैं तैराक न था अपनी साइकिल का हैंडल एक हाथ में और दूसरे हाथ में मेरी प्रिय पुस्तकों का थैला पग पग बढ़ाते हुए प्रभु को याद करते हुए बढ़ रहे थे आज अपने यौवन काल की टक्कर नदी के उफनते यौवन रूपी मदमस्त वेग से थी।     

       लगभग आठ दस कदम बड़े ही थे एक वेगवान जलधारा टकराई और मैं बहते बहते बचा महसूस हुआ कोई भयंकर जलधारा इकट्ठी होकर मुझे जलसमाधि देना चाहती हो मैं पूरी शक्ति के साथ कदम कदम बढ़ाता रहा।

      जैसे तैसे स्वयं को संभाला मुझे लग रहा था नदीं मेरी परीक्षा ले रही है,या समझाने का प्रयास कर रही है लौट जा मैं तरुण युवती हूँ मैं मदमस्त हूँ मैं यौवन से आच्छादित हूँ समझ रे यायावर ये उसका मूक सन्देश लग रहा था।

     मगर मैं लड़खड़ाते कदमों से जलधारा में थोड़ा सा रुका और फिर निश्चय किया कि जो भी हो अब तो नदी को पार करना ही है इसका दर्प चूर करना ही है।

     ये निर्णय अब मुझे काल के गाल में जाने बाला स्वयं निर्णीत कदम लगता है लेकिन तब ये मिशन था मेरा,

    फिर साहस,शक्ति,सामर्थ्य और नदी की मदमस्त अठखेलियाँ खेलती जलधारा में टक्कर हुई और मैं अपनी साइकिल और झोला को अधिक मजबूती से पकड़कर पैर जमाने का प्रयास करता हुआ आगे चल पड़ा। 

   अबकी बार तीब्र जलधारा का वेग टकराया और मेरे पैर उखड़ते उखड़ते बचे फिर पूरा बल लगाने के बाद अपने आपको सम्भालने में सफल हो सका शायद मुझे ज्ञान न था नदी के वहाब में पैर कब तक रुकेंगे बमुश्किल नदी के मध्य आते आते पानी छाती को स्पर्श करने के लिए आतुर होने लगा, लग रहा था नदी मेरा चुम्बन लेना चाहती हो या अपने आगोश में समाना चाहती हो निर्णय पाठकों को करना है।

   अब भय ने आक्रमण किया साथ ही बलखाती नदी की धार की गर्जन भय पैदा कर रही थी मुझे सहसा ऐसा लगा कि मैं अब नदी की भेंट हो जाऊँगा, इससे टकराना स्वयं काल के गाल में जाने जैसा प्रयोजन होगा,

     साइकिल भी हाथ से छूटने बाली थी

साइकिल बहने को उताबली हुई जा रही थी अब पैर भी उखड़ने की जुगत में थे।

 लेकिन तभी किसी दिव्य ज्ञान का आलोक फूटा कि अगर मेरी पुस्तकें बह गई तो मैं कैसे पढूंगा साथ ही वैध जी की औषधि बह गई तो क्या जबाव दूंगा माता जी को अब निर्णय हो गया लौटना है उल्टे पाँव इस यौवन से मदमस्त नदीं से टकराना उचित नहीं क्योंकि अभी हम अधपके यौवन काल मे हैं और ये सम्पूर्ण यौवन के मदमस्त चौराहे पर चलो फिर कभी इसकी हनक तोड़ेंगे अभी लौटना ही उचित होगा।

अंतिम निर्णय पारित हो चुका था सावधानी और सजगता से पैर वापिस करने प्रारम्भ किये टीस थी इस पर विजय नहीं पा पाए!

      उस दौर आषाढ़ सावन में नदियों की जलधार अधिक गतिमान हो जाती थी जैसे तैसे किनारे पर लगे और अपने गांव को निहारते हुये लगे सोचने,अगर मैं इस जलधारा का ग्रास हो जाता तो माँ क्या सोचती माँ की याद आते ही पैंट जूते पहन लगा दी दौड़ गॉव की फिर वही सड़क,दगरे*( कच्चा मार्ग)मूँज के गूंदरा मेड़ पर साइकिल दौड़ाते हुए पहुँच गए शाम तक घर पर माँ चिंतित थी शायद व्याकुल भी क्योकि मैं हमेशा वचनबद्ध, और समय का पाबन्द रहा हूँ समय पर कार्य करना समय पर घर पहुँचना मेरी बुक में शामिल था जो अभी भी जारी है।

     माँ देखते ही बोलीं कहाँ रह गया था तू कुछ बनाबटी बातें की और माँ सच मान गयी, मेरी माँ सरल ह्रदय धार्मिक गृहिणी थीं,औषधि माँ को दी और घर में मग्न हो गया माँ बहुत प्यार करती है अपने बच्चों को अपनी जान से भी ज्यादा और माँ को हम कितनी जल्दी समझा देते हैं और वह मान भी जाती है निश्छल प्यार में वशीभूत होकर,

   मैं मन ही मन  सोचने लगा मैं अगर घर नहीं लौट पाता तो माँ क्या सोचती उसे तो पता ही नहीं चलता मैं कहाँ चला गया हूँ उस दौर में संचार के पर्याप्त संसाधन भी नहीं थे खैर युवावस्था जो करा दे सो कम है       

   इस घटना का जिक्र आज तक किसी के समक्ष नहीं किया है मैने, मुझे लगता है शायद ये मेरे संस्मरणों को और सशक्त रोचक और ह्रदयस्पर्शी बनाने हेतु ही शेष था आज इसे सभी के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।

      साथ ही सभी युवा पाठकों को सन्देश देना चाहेंगे सदैव सचेत और सतर्क होकर निर्णय लेना ही हितकर है जोश में कभी कभी होश काफूर हो जाता है।

     वह पुस्तकों से प्रेम और माँ का आदेश मुझे उस जलवेग से बचाने में सहायक हुआ ऐसा मेरा मानना है। 

शेष अगले अंक में 

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शिव शंकर झा "शिव"

स्वतंत्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

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