■कविता■
■तब तुम्हें पत्थर को जल में मारना है■
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जब ज्ञान का दीपक बुझे घन घमंड छाए,
आदमी में आदमी नजर जब नहीं आये,
टूटती आहों की ध्वनि दिल ना सुने,
विकट विपदा वेवश हो अपना सिर धुने,
तब तुम्हें पत्थर को जल में मारना है,
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मछलियों की दम जल में घुटने लगे,
मगर का साम्राज्य हर ओर पटने लगे,
खींच लें मानव ही मानव की सांस जबरन,
सिसकियों में हो घना जब करून क्रंदन,
तब तुम्हें पत्थर को जल में मारना है
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सिसकियों की धुनि कान सुनना बंद कर दें,
वेदना और आह दिल मे आनन्द भर दें,
तब क्रांतिरथ के अश्व तुम छोड़ देना
शत्रु दल की वक्ष स्थल चीर देना,
तब तुम्हें पत्थर को जल में मारना है
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वन्दिशों की बेड़ियों को तोड़ देना,
द्वार कारागार के सब खोल देना,
तब दमन की घोरआंधी रोक देना,
जब स्वघोषित जीत की गाथा बुलन्द हो,
तब तुम्हें पत्थर को जल में मारना है,
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जीत की वेवश जवानी हार जाए,
साहस भी घुटने जब टेक जाए,
कौंधती आकाश विजली ना दिखे,
गगन चुम्बी भवन से जीवन बिके,
तब तुम्हें पत्थर को जल में मारना है
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नीला गगन कुम्हलाने लगे,
क्षीरसागर तप्त हो जलने लगे,
जब आदमी को घोर शोषण भाने लगे,
जब विजय की गूंज बेजुबान लाशों से बने,
तब तुम्हें पत्थर को जल में मारना है,
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शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
13.11.2021 07.42 am
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