दरख्त सहम गया जब उसे ये पता चला,
मैंने जिसे छांह दी वही मुझे काटने चला।
मगर फिर भी वह शांत ध्यानमग्न हो गया,
धूप थी कड़क लकड़हारा छांह में सो गया।
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शायद अब इसकी सोच बदल जाए,
इसे हम दरख्तों की कीमत समझ आए।
अपने समतामूलक भाव में समा लेता हूँ,
चलो इसे अपने पत्तों से शीतल हवा देता हूँ।
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इसकी नीयत मुझे समूल मिटाने की है,
काट काटकर खंड खण्ड कर हटाने की है।
एक मोटी "डाल" डालकर दुनियां से हटा दू,
क्या मैं इसे अभी मौत के आगोश में समा दू।
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नहीं नही"हे दरख़्त"तुम ये नहीं कर सकते,
इंसा फरेबी हो भी जाए तुम नहीं हो सकते।
तेरी शपथ मानव को प्राणवायु देने की है,
और इसकी फितरत तुझे मिटा देने की है।
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तेरी छांव में लकड़हारा बेसुध सो गया है,
अभ्यागत तेरी शरणागत अब हो गया है।
अब दरख़्त ने शीतल मंद बयार खूब चला दी,,
भान था दुष्ट है फिर भी दरियादिली दिखा दी।
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लकड़हारा जागा बैठा और कुल्हाड़ी में
धार दी,
आव देखा ना ताव देखा दरख़्त के वक्ष
में मार दी।
उसके वक्ष से भीषण दर्द कराह निकली,
शोणित की अश्रुपूरित तीक्ष्ण धार निकली।
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लकडहारा बलपूर्वक मारता रहा मारता रहा,
दरख़्त अपने लहू की गद्दारी से हारता रहा।
कुल्हाड़ी में अगर लकड़ी का दस्ता न होता,
दुष्ट दुश्मन काटकर आज हंसता न होता।
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दरख़्त धीरे धीरे मौत के आगोश में आ रहा था,
स्व कौम रक्त की करतूतों पर रोष आ रहा था।
अगर ये कुल्हाड़ी रूपी शत्रु का सहारा ना बनता,
इसकी क्या हिम्मत गर साथ ये नकारा ना बनता।
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मरते मरते दरख़्त ये सन्देश दे गया,
समूची मानव जगत को उपदेश दे गया।
सुनो गर स्वजन की शत्रुओ से बन जाए,
सचेत सतर्क रहना मित्र गर ठन जाए।
अन्यथा मेरी तरह काट दिए जाओगे,
टुकड़े टुकड़े कर बांट दिए जाओगे।
साधुता मेरी मेरे लिए अभिशाप बनी,
दुष्ट के लिए क्यों ना ये ताप बनी।
शत्रु हमें पहले से हराने की ताक में था,
बस लहू की बुजदिली की फिराक में था।
गर रक्त इस कुल्हाड़ी का सहारा ना बनता,
मैं मानवता परोसता हारा हारा ना बनता।
सँभलने समझने की कोशिश करो मित्र,
अलविदा लेता हूँ अपना ख्याल करो मित्र।
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सर्वाधिकार सुरक्षित
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
०६.०२.२०२२ ०१.२५ अपराह्न
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