कविता-स्वयं से परास्त मत हो जाना

 

कविता 
स्वयं से परास्त मत हो जाना 

चल      उठ      डग   भर, 
क्यों नतमस्तक भय के आगे नर।
चल  कदम  बढ़ा  भय  दूर छिटक, 
मत ठिठक दुबक मत दुबक ठिठक।

सारी    धरती   सारा  अकाश, 
स्वागत में  उत्सुक तम प्रकाश।
धोखा   विरोध   बाधाएं   छल,
प्रखर प्रबल  करते  रहते  बल। 

सब   शक्ति  तिरे  भीतर नर है, 
किसलिए  भरे  फिरता  डर  है। 
स्वयं से परास्त मत हो जाना, 
गहरे  तम  में  मत खो जाना।

निर्णय   कर  धर   पग  प्रबल  प्रबल, 
चल चल चल चल  निर्भय  चल  चल।
अवरोध   शक्ति   बन  जाते  हैं, 
जब हम स्वयं को लखि पाते हैं। 

दिनकर होते नित उदय अस्त, 
तम  रहता  तम दे सदा व्यस्त। 
दोनों   रहते समभाव   सुखद, 
दोनों  की  अपनी  अपनी हद।

देने    आते  रवि  नित्य  ज्ञान, 
नर  तू  विशेष  नर  तू  महान। 
निशा  प्रभात   रात्रि  गतिमय,
सब पै भारी नित नित्य समय। 

पर्वत नदियां  फल फूल  विटप,
वायू  जल अग्नि ज्ञान जप तप। 
उसने  सबको समान देकर, 
सबको  ह्रदय से अपनाकर। 

चल      उठ      डग   भर,
क्यों नतमस्तक भय के आगे नर।

सर्वाधिकार सुरक्षित 
कवि-शिव शंकर झा “शिव”
       स्वतंत्र लेखक 
३० ०७ २०२५ ०९ ४८ पूर्वाह्न (४६४)


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