संस्मरण( अतृप्त आत्मा)

                      संस्मरण

                   अतृप्त आत्मा 

                  --------------                   


              
ज्येष्ठ मास की कड़कड़ाती धूप अपने बल का आभास कराती हुई मानवीय जीवन मनुष्य का दर्प चूर कर रही थी। मनुष्य भीषण आग रूपी धूप के थपेड़ों के आगे नतमस्तक था विवश था शक्तिहीन जान पड़ता था।

         बृक्ष भी वेबस थे ताप को सहने के लिए साथ ही वायुदेव भी उस कड़कड़ाती धूप का दर्प,अहंकार, घमंड  भंग न कर पा रहे थे,अपितु ऐसा विदित होता था कि वे भी उसके चाकर (सेवक) बन गए हों धूप को ध्यान से देखने से विदित होता था मानो महीन धवल तार आंखों के समक्ष नृत्य कर रहे हों

   सत्र १९९९ का था मै अपने अध्ययन में रत था लक्ष्य था गांव,गरीब,शोषित का जीवन कैसे सुखद हो,कैसे शोषित पीड़ित की आबाज बुलन्द हों,राजप्रासाद सत्ताशीन व्यक्ति सामान्य जनमानस के समक्ष समानता, सदभावना,सदव्यवहार का सलूक करें,मन था एक प्रशासनिक अधिकारी बनने का,

            पिता जी कहते थे एक ईमानदार अधिकारी सैकड़ों घर सँभालता है,और एक भृष्ट अधिकारी केवल अपना घर सँभालता बनाता है अपनी सन्तान के अधोपतन हेतु, 

     विशेष पद के लिए मुझे कडी मेहनत  करने का परामर्श देते रहते थे पिता जी, कहा करते थे व्यक्ति की अपनी कोई ताकत नहीं होती,असली ताकत उसके पद में उसकी कुर्सी में उसकी कलम में निहित होती है।मैं भी सरकारी नौकरी के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी पूरी निष्ठा और सुचिता से कर रहा था,

         यकायक मेरी माताजी की आबाज आयी क्या कर रहे हो "शिव' मैनें कहा अम्मा (मैं अपनी माँ को अम्मा सम्बोधित करता था साथ ही सभी भाई बहिन भी)प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहा हूँ। अगले माह उसकी परीक्षा जो है ठीक है बेटा,

         माताजी ने कहा-और मुझे पास बुलाकर बोलीं तुम अभी बाजार चले जाओ और रसोई से सम्बंधित एव अन्य आवश्यक वस्तुएं ले आओ,मैंने तुम्हारे पिताजी को बता दिया है क्या क्या खाद्य सामग्री भेजनी है उन्हें विदित है, तुम अभी चले जाओ अपनी साइकिल से,मैनें हॉं में सिर हिलाया,    


       मैं हमेशा सुबह सुबह स्नान कर लेता था साथ ही स्वच्छ धवल वस्त्र मेरे शौक में शामिल थे,मैंने हामी भर दी चलो झोला दे दो मैं जाता हूँ जूतों पर चैरी की पोलिस लगाई और चल दिये झोला साइकिल के हैंडिल पर टांगकर, बाजार के लिए,माँ का दयालु ह्रदय ये बोलना न भूला कि तेज धूप में मत आना देर हो जाये तो तुम पिताजी के साथ दुकान बढ़ाकर उनके साथ ही आ जाना।

        मैंने हाँ में हां मिलाई और चढ़ गए साइकिल पर,उसी दिन हमारी साइकिल का एक पैडल भी टूट गया था पैडल प्लास्टिक का जो ठहरा घिस घिस के चला और लोहे के घर्षण आघातों को झेलता रहा अपनी सामर्थ्य अनुसार और जब वह हारने को हुआ तब उसने साथ छोड़ दिया साइकिल और जूतों के प्रहार से स्वतन्त्र हो गया

     आज वह भी कर्तव्यपरायणता की सीख देता हुआ मुक्त हो गया बूटों की चोटों के समक्ष कब तक टिकता बेचारा दुर्गति से सद्गति की ओर वह पग बढ़ा चुका था।

     बाजार ज्यादा दूर न था २०/२५ मिनट की दूरी तय करके अपने पिताजी के पास अपनी दुकान पर पहुँच गए। पिताजी ने भी वही सवाल दागा की इतनी धूप में क्यों आये, मैंने अम्मा द्वारा कहे वाक्य दोहरा दिए ठीक है। 

          ये पर्ची लेकर पंसारी की दुकान पर जाओ और सारी खाध सामग्री ले लो और हाँ अपने पसंद की मिठाई एवम चाँट जो भी अच्छा लगे हलबाई की दुकान से खा लो दुकान के नाम पर बही में चड़बा देना। हमने अपनी पर्ची पंसारी महोदय को दी, और खुद चल दिये पेट पूजा करने पसन्द की भरपेट खुरचन खाई(खुरचन दूध से निर्मित विशेष मिष्ठान होता है) 

    पंसारी महोदय से सामान लेकर झोले में रखा(उस समय झोला अम्मा पुराने पेंट के कपड़ों से निर्मित करती थी) झोला साइकिल के कैरियर पर बांध लिया,दुकान आकर पिताजी से अनुमति ली

बाबू जी अब मैं घर जा रहा हूँ, बाबू जी बोले धूप अधिक है शाम को मेरे साथ चलना,मैंने कहा नहीं मैं चला जाऊंगा,

बाबू जी बोले ठीक है जाओ लेकिन बर्फ मत खाना,सर्द गर्म हो जाएगी,मैनें हॉं में गर्दन हिलाई और चल दिये साइकिल सवार बनके।

        धूप के प्रचण्ड थपेड़े वायु के साथ अत्यधिक वेगवान हो रहे थे समय था टीका टीक दोपहर का ऐसा प्रतीत होता था,कि मार्ग निर्जन हो गया हो दूर दूर तक स्याहा सन्नाटा ही सन्नाटा,कोई मनुष्य नहीं दिख रहा था लगता था मानो हार मान गया मानव गर्मी के प्रचंड प्रहार से,

        हमने बरगद के बृक्ष के नीचे रुककर थोड़ी देर धूप को मात देनी की कोशिश की सुस्ताये, किन्तु कोई प्रभाव ना पड़ा लाभ न हुआ,अब हमने निर्णय लिया चलो चलते हैं साइकिल सवारी का आनन्द लेते हुए,और हम चल पड़े। 

       उस २ किमी के मार्ग में सिर्फ एक बरगद का बृक्ष और दो पुल एक पुलिया और एक कुआ पड़ते थे। अब भी उसमे शायद परिवर्तन न हुआ हो,हम अपनी मस्ती में साइकिल को दौड़ाते हुए चल रहे थे,

अचानक एक मधुर पाजेब,(पँसुरी जिन्हें पैरों में पहनकर महिलाएं नृत्य का आनन्द लेती हैं) की घनघानाती आबाज कानों में समाती चली गयी आबाज मनमोहक सी प्रतीत हुई घनी दुपहरिया में किसी महिला के होने का आभास लेकिन दृश्यमान कुछ भी नहीं ध्वनि मधुर सुहानी लग रही थी,

     लगता था कोई नृत्यनिपुन नर्तकी हमारे साथ सहयात्री हो,पदगामी हो,अचानक मन असहज सा हुआ कम्पायमान सा,क्योकि ये आबाज टीक दुपहरिया में सामान्य न थी,    


         मुझे कुछ समय अहसास ही न रहा कि हम निर्जन जेठ की दुपहरिया के दौरान मार्ग में एकल पथगामी  हैं,अचानक बुद्धि ने विवेक को जगाया अरे शिव क्या सोच रहे हो तुम साइकिल पर सवार हो और यहाँ नृत्य की धुनि कैसी अगर स्त्री होती तो दिखती लुप्त क्यों होती?

       दिल धक धक कर रहा था अब कलेजा मुंह की ओर आने को उद्दत था,कुछ असहज सा लगा भय स्थान लेना चाहता था उर में,

       साहस ने साथ दिया सजग हो जाइए ये कोई महिला नहीं शायद हो ना हो ये कोई अतृप्त आत्मा जान पड़ती है।

तुम्हारे हाथ से  साइकिल का हेंडिल न छूट जाए,अगर हैंडल छूटा और तुम जमीन पर गिर पड़े प्यारे,तो ये भटकती आत्मा तुम्हें अपने चंगुल में ले लेगी,अब मेरे पैर कंप रहे थे,मन भारी भय से घिरता जा रहा था उस समय मुझे सच लगा कि आत्माएं होती जरूर हैं क्योंकि मैं उस समय आत्मा के साये में था वह मेरा शायद आलिगन करना चाह रही थी या भूख का निबाला?

     भयानक डर मुझे घेरने को आतुर था मार्ग में कानी चिरैया भी द्रष्टगत नहीं हो रही थी शायद ये उस अतृप्त आत्मा का मायाजाल था ऐसा प्रतीत होता था।

 मुझे लग रहा था कि कोई अदृश्य पाशविक शक्ति आगोश में लेना चाहती हो मुझे गले लगाना चाहती हो या प्यास बुझाने की फिराक में हो मन निर्णय हीन होता जा रहा था।

     फिर दूसरा मन बोला आगे पीछे कोई नहीं कोरा बहम है,जैसे ही सहज होने की कोशिश करते हुए साइकिल बढ़ाते फिर कोई सुंदरी नृत्य करती साथ चलने लगती,आबाज बराबर कानों में आ रही थी लेकिन कोई दृश्यमान नही हो रहा था, अंतर्मन ने कहा वैसे ही भृम हो रहा है यहां नृत्य की आबाज कैसी,मानसिक बल शारीरिक बल से अधिक शक्तिशाली होता है ऐसा सुना हैअंतर्मन बोला भाग लो भाई अन्यथा नरबलि ले लेगी ये रक्तपिपासु अतृप्त आत्मा,अब हमने अपनी सवारी को और तेज किया किन्तु गति जैसे रुक सी गयी हो,फिर भी पूरी ताकत के साथ गति बढ़ानी चाही लेकिन विदित होता था जैसे पैर शक्तिहीन हो रहे हों या ये कहे कि साइकिल वापिस लौट रही हो,

            फिर भी हम साइकिल पर बने रहे,जैसे ही गति बढ़ाएं पुनः एक अदृश्य नृत्यांगना के पाजेबों की धुनि फिर टकरा जाये,मुड़कर देखने पर कोई आबाज नही जैसे ही चलें फिर वही धुन और इधर उधर कोई यायावर राहगीर भी नहीं दिख रहा था,समय शायद दोपहर १२/१.०बजे का रहा होगा, हमने सुना था पीड़ित भटकती योनियां इसी समय की तलाश में रहती हैं।     


         जैसे ही ये बात मस्तिष्क में आई भय पूर्ण बल के साथ या यूं कहें अपनी चतुरंगिणी सेना लेकर मुझे धराशायी करने हेतु सज्ज हो गया विदित हुआ,मेरी शक्ति को तोड़ने के लिए आतुर हो,ऐसा लग रहा था,और हुआ भी वही मैं बढ़ता जा रहा था साथ साथ भय और उस अद्रश्य आत्मा की चलने की पँसुरियों की आबाज भी हमारा पीछा कर रही थी।

          लेकिन मैंने लोहे का साथ न छोड़ा सुना था पाशविक आत्मायें आग और लोहे से डरती हैं,अब डर लगने लगा मैं किशोर ही तो था एकल पथगामी और छोटा सा दिल मुंह रोने को सज्ज जान पड़ता था हे भगवान मुझे बचा लो इस महिला के चंगुल से दिखती है नहीं और रुकती भी नही क्या करूं।

अब मन से आबाज आयी हो न हो ये कोई चुड़ैल तो नहीं जो मेरा पीछा कर रही हो, 

स्त्री पथगामी होती तो दिखती अवश्य,अब मैनें अपनी साइकिल का हैंडिल लोहे के स्थान से कसकर पकड़ लिया,

         सुना था अतृप्त आत्माएं लोहा और आग से भय खाती हैं,अब बचने का एक ही माध्यम था लोहे का सामीप्य उसका सानिध्य।

               लेकिन दुर्भाग्य मैं उस समय अपनी पादुकाएं चलती साइकिल से कैसे उतारता मन किया जूते उतार फेकों ताकि पैर भी लोहे को छू लें और हमें दोनों ओर से सुरक्षा कवच मिल जाएगा,

       लेकिन हम जूते उतारने में सफल न हो सके,मन में भय था प्यारे अगर ज्यादे चतुराई करी लोहे के गले पड़ने के चक्कर में तो ये बहुत सारे चक्कर मारेगी।

   और अगर जूते उतारने के चक्कर मे तुम नीचे गिर पड़े तब तो निश्चित ही छाती में नाँच करेगी,अगर पैरों से लोहा स्पर्श करने के चक्कर में दगरे में गिर गये,शिव, तो ये जरूर मारकर रक्त पी जाएगी,सुना था चुड़ैल रक्तपिपासु होती हैं,अब मैं खड़े होकर साइकिल चलाने की कोशिश करने लगा, ताकि अतिशीघ्र अपने घर पहुँच जाएं,विदित होता था जैसे साइकिल आगे चलने के बजाय साइकिल पीछे का मार्ग चाहती हो।

     शायद उस पाजेब बाली अतृप्त आत्मा की मधुर नृत्यनिपुन आबाज के पास लौटने को आतुर हो उसके मनमोहक भावभंगिमा से आत्मसात करना चाह रही हो,मुझे लगता है उस दिन मुझपर दैव प्रबल थे अचानक माताजी का दिया हुआ एक मंत्र याद आया,और तेज तेज आबाज में उसे पढ़ने लगा,अब आबाज रुक रुक कर आने लगी हमें लगा मेरा मंत्र काम कर रहा है,लेकिन वह पूर्ण मारक अस्त्र न बन सका क्योंकि अब वह अतृप्त आत्मा मेरा साथ छोड़ना चाहती थी या शायद अब उस अतृप्त आत्मा की सीमारेखा आने बाली थी उसका स्थान आ गया हो, 

       एक बार फिर तेज ध्वनि की आबाज सुनाई दी,जैसे वह मुझे आलिंगनबद्ध करता चाहती हो आगोश में समाना चाहती हो शायद ये उसका आखिरी प्रयास था,

           मुझे छूना चाहती हो मुझ में समाहित होना चाहती हो,अब हम उस विकट परिस्थिति से शायद बचने बाले थे, या और फंसने बाले बिदित नहीं सहसा ही हमारे अंतिम पड़ाव में कुआं दिखाई देने लगा।

     मैंने पूरी ताकत के साथ साइकिल की गति बढ़ानी चाही लेकिन प्रतीत होता था, वह भी उसी के पक्ष में हो  मुड़कर देखते तो आबाज बन्द और जैसे ही चलते फिर नृत्य की आबाज कर्णपटों को भेद जाती,    


          अब हम कुएं के पास आने बाले थे,जैसे ही हमने कुआं की सीमा पार की, तभी एक भयंकर डरावनी ह्रदय को विदीर्ण करने बाली आबाज आयी,हमारा युवा मन भयभीत कम्पायमान हो अधिक डर रहा था,

      हे बजरंगबली,हे काली माँ लगभग सभी देवी देवताओं से गुहार लगा दी मन ही मन में मुझे इस चुड़ैल से बचा लो तेज आबाज कानों को चीरती हुई अभी भी आ रही थी, 

         जैसे ही हम कुएं की सीमारेखा को पार किये अब आबाज सुप्त सी होती जा रही थी कम हो रही थी, मुझे गर्जन के साथ भयंकर आबाज सुनाई दी मानो कुएं के शांत जल में कोई भयंकर भारयुक्त भैस  सदृश पशु गिरा हो,या यूं कहें वह उसमें कूदा हो अपने अग्नि को शांति करने हेतु, 

लेखक की कलम कह रही है शायद ये उसका अन्तःपुर था वह उस कुएं की स्वामिनी थी और उस दौर वह किसी पवित्र आत्मा के साथ सानिध्य पाने हेतु भृमण शील थी और मार्ग में मिल गये लेखक वर...  


      शायद वह कुआ अतृप्त आत्मा की वह मंजिल,सीमारेखा,निवास स्थान थी,शायद वह उस कुएं में अपना स्थान ले चुकी थी,आसन ले चुकी थी,अब मैं और मेरी साइकिल सामान्य अवस्था में थे, लेकिन कलेजा धक धक कर रहा था,साइकिल को पूरी ताकत से दौड़ाने लगे,साइकिल दौड़ाने के चक्कर में गिरते गिरते बचे, 

    

       उस दिन साइकिल ही मेरी प्राण रक्षक बन गयी थी, ऐसा मन कहता है,जब घर पहुचे तब जान में जान आयी,

    आज भी ये संस्मरण मेरे रोंगटे खड़े कर देता है,माता जी को जब घटना से अबगत कराया,वह बहुत घबड़ा गयी,और हम लग गए अपनी धुन में,माताजी ने रात्रि में मेरे लिए देव आराधना की, एव पोखर बाले को लड्डू चढ़ाया,उनकी आस्था थी अगर घर के देव तृप्त रहेगें तो कोई अतृप्त आत्मा,अनहोनी घर मे प्रवेश न करेगी।

         तबसे मैं भी मानने लगा हूँ अतृप्त आत्माओं का एक संसार कहीं न कहीं अवश्य होता है ऐसा मानने में संकोच नहीं करता,

            साथ ही प्रिय/सम्मानित पाठकों मेरा उद्देश्य अंध विश्वास को बढ़ाना नहीं है और किसी व्यक्ति के मन को व्यथित करने का प्रयोजन है,

           ये मेरा साथ घटित सत्य घटना से लिया गया संस्मरण है।                            


             अगले लेख में फिर एक संस्मरण के साथ मिलते हैं।

                                     

शिव शंकर झा"शिव"      

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.

buttons=(Accept !) days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !