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घरों के लिए चिराग बमुश्किल मयस्सर
हो रहा है,
सारी कायनात को जगमग करने का
गुमान है तुझे
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हुक्म दे अपने मातहतों को एक बार
ईमान से सुन,
फाइलों की बाजीगरी से दूर हों सच को
दिखा दें,
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तेरे आने की आहट कान में पड़ती है जब
इनके,
रात ही रात में सड़कें बना देते हैं जाग कर
मातहत,
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हम लोग क्यों झुकें तेरे दर पर जाकर
मांगने वाले,
वोट मांगते वक्त तू मेरे द्वार पर घुटनों के
बल खड़ा था,
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वोट से चोट बखूवी कैसे हो सलीका
मालूम है हमें,
अब और किसी सेवक को गद्दी देने की धुन सवार है,
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हमें कहाँ इल्म था हम इतने बदतर
हालात में होगें,
अपनों की आय हजारों गुना बढ़ा दी
घर हमारे जला,
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भूख अपनी तो दबा ली घुटनों को पेट की
ओर कर,
मगर बच्चों के वास्ते खुद्दार भी झुक गया
सिर झुका,
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शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर