दिखाबे से ना चाहो
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आदमी की कमजोर नस दबाने की जुगाड़ में है आदमी,
सिरफिरे मुहं पर बोल देते है सच,कुछ आड़ में है आदमी,
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आदमी जालसाजी से लबरेज हो चला है आजकल,
रिश्तों से खेलना अब हुनर लगता है सुनो आजकल,
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ख्वाबों की सुर्ख रेशमी दुनिया में इतना
ना खो,
जमीं दोगज ही मयस्सर होगी तेरे दफन
के लिए,
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भीड़ से जब डर ही रहे हो आजकल तुम,
फिर क्यूं मजलिसों में जाने का खुमार है,
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खूब जश्ने रंगरेलियां मना दो नम्बर से
कमा कर दोस्त,
आह की चोट सीने में बेपनाह दर्द लाएगी
ध्यान रहे,
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दिल से इत्मीनान से तुम अदद मुस्कान
ना ला सको,
तो क्या जरूरत है दिखाबे की होंठों पर हँसी लाने की,
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खैर तुम मुझे अब और दिखाबे से ना चाहो,
कौन हो किस जुगाड़ में हो सच आइने में लाओ
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शिव शंकर झा "शिव"
स्वतंत्र लेखक
व्यंग्यकार
Good best batter
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