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स्याह सन्नाटे की आहट क्या डराएगी मुझे,
मैं काली रात की हुँकार का इक रूप हूँ,
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जिद है समंदर के किनारे तोड़ने की शिव,
मैं अब आंधी से बबंडर बन चला हूँ,
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हवा जहरीली है वेशक मेरे माफिक
आज कल ,
मगर वह जान का जोखिम नहीं ले
पायेगी,
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साजिशों का दौर मुझको भाने लगा है
अब,
वे साजिश में अपनी ताकत खपाते जा
रहे हैं,
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अर्दली तो नहीं होगा कभी "शिव" गैर
चौखट का,
डर से दर पर जो सिर झुके वह सिर
नहीं होता,
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शिव शंकर झा"शिव"
स्वतंत्र लेखक
व्यंग्यकार
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