प्रेरणादायक लेख(संयुक्त परिवार)

    


             

प्रेरणादायक लेख                

                  संयुक्त परिवार  

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     एकता,एकत्व,संयुक्त परिवार,सहभोज की पद्दति हमारी जड़ों में रगों में असी बसी रही तब तक हम सुरक्षित,स्वतन्त्र,मानसिक आनन्द,सुकून,सौहार्दपूर्ण वातावरण से दीप्त बने रहे।

   किन्तु जैसे ही हम निज जीवन,निज 

स्वार्थ,निज आनन्द,की तरफ बड़े अपनी संकुचित सोच की तरफ एकरूप हुए जैसे ही हमने सिर्फ अपने लिए जीना शुरू कर दिया

      और फिर अपना अलग निवास,वाहन,

भौतिक सुखों के संसाधन जोड़े मात्र इस सोच के साथ कि संयुक्त परिवार में हम अपने लिये नहीं जी पाते अब भौतिक जीवन का आनन्द,एकान्तानन्द,भरपूर यौवन का आनन्द प्राप्त करने में असहज पाते है या यूं कहें स्वच्छंद यौवनानन्द प्राप्त नहीं कर पाते ऐसा सोचकर संयुक्त परिवार से विरत हो गए।

       समयानुसार कुछ कालांतर में सन्तानो का उद्भव काल निकट आया,और एक नवीन कोपल के साथ नव सन्तति का पदार्पण हुआ किलकारियां गूँजी,खुशियों से आंगन गुंजायमान हो गया।

        बालक वालिका आंगन में आ गए 

अब पास में ना दादा ना दादी ना ताया ताई आदि कोई भी नहीं जिनकी गोद में बच्चे खेल सकें एक ओर विकट समस्या इन्हें सम्भाले कैसे इनकी देखरेख कैसे करें जानकारी का अभाव, शारीरिक सुख के आनन्द में वाधक से होने लगे वालक, वालिकाएँ,क्योकिं अब बच्चों के पास न दादा हैं ना  दादी और  न ताया न ताई,ना चाचा चाची आदि आदि,उन्हें किसकी निगरानी में छोड़ दें।

               धीरे धीरे असुरक्षा की भावना सताने लगी पति पत्नी नौकरी पर जाएं तो बच्चे किसकी देखरेख में छोड़ दे,पराए पर भरोसा कैसे करें मन में भारी असंतोष और असुरक्षा का भार बढ़ने लगा और फिर यही असुरक्षा,असंतोष एक दिन तनाव में बदलने लगा अब मन तनावग्रस्त उड़ा उड़ा सा खाली खाली और धुंआ धुंआ सा लगने लगा।

            क्योकि अब सारी जिम्मेदारी,

दायित्व,बोझ,और जोखिम सब के सब  स्वयं के पाले पड़ गए,अब पहले की भांति अपनी परेशानी,अपने हिस्से का काम  पिता या भाई के ऊपर डालने की विधा लुप्त सी होगयी क्योंकि हमने स्वयं ही तो एकाकी आनन्दपूर्ण भार्या संग प्रेमानन्द का एकल मार्ग प्रशस्त किया था भरपाई की क़िस्त भी स्वयं ही जमा करनी होगी हम ही तो परिजनों को छोड़कर सपत्नीक नव ग्रह में आनन्द भोग की भूख के साथ आ बसे थे ताकि व्यक्तिगत जीवन सुखेच्छाओं में कोई खलल ना पड़ सके योजना ही हमारी देन थी प्रिय पत्नी जी के प्रेरणा से।

         अब पिता,भाई परिजन तो साथ हैं नहीं परिवार के नाम पर मात्र हम दो और हमारे नवागत संतानें जब हम संयुक्त परिवार का भाग थे तब  जो भी अपनी व्याधियाँ, कमियां, परेशानियां होती थी उन्हें उनके साथ साझा कर लेंते थे या यूँ कहें कि उनके ऊपर डाल देते थे कभी कभी जबरन भी और यह कहते ये आप देख लीजिए मुझसे ना हो पायेगा और मस्त हो जाते अब ये सब कलाएं विलुप्तप्राय सी हो गयी हैं,हम साथ होते तो सुकून से सोते भरपूर सुखद मनोभावों के साथ अब पत्नी जी भी खिट खिट करने लगी हैं वह भी खिझियानी सी प्रतीत होती है रोमांस में शनै शनै विलुप्तीकरण का भाव प्रखर हो रहा लगता है अब उनकी नींद में खलल पड़ने लगी है,वालक वालकाएँ सकून से रात भी नहीं गुजारने देते चिल्ल पौये मची रहती है।

      अब पत्नी जी को भी अपने परिवार के साथ एव देवरानी,जिठानी के साथ गपशप करने का मन होने लगा है बतियाने की ललक बलवती होने लगी है सैर सपाटा करने का विचार आने लगा है लेकिन क्या करें भार्या जी का अब बच्चों की बजह से कहीं आना जाना भी कम ही हो पाता है। अब सारी गुस्सा हमारे ऊपर उड़ेल देती है मानों बादल फट गए हों अब शारीरिक प्रेम की इच्छा भी अवसान काल की तरफ जाती हुई विदित होती है।

       जीवन संगिनी प्रिय पत्नी जी अब घुटन और कुंठा के जाल में उलझती जा रही हैं लेकिन क्या करें लौटने के सारे रास्ते खुद ही बंद कर आई थी पत्नी जी,घुटन,अवसाद और रोज रोज की पति पत्नी की रार अब घर से निकल कर दरबाजे और फिर सड़क पर आने लगी है,अब शकुन और शैलजा पहले की भांति असीम आनन्द की बेल को पल्लवित और पुष्पित करने में कोसों दूर चले गए हैं,धन दौलत सब कुछ है लेकिन प्यार और स्नेह काफूर सा हो चला है।

          शकुन सोचने लगा है क्यों ना माँ बाबूजी भैया भावी के साथ ही रहें लेकिन क्या करे शकुन, शैलजा तैयार ही नही होती, वह खुलकर कह ही नही पाती क्योंकि पति के साथ एकल पथगामी एकाकी जीवन जीने का प्रस्ताव शैलजा ने ही दिया था,प्रेमपाश में बंधा शकुन ना नहीं कर सका और सदा सदा के लिए सपत्नीक एकाकी जीवन की बेड़ियों में जकड़ गया।

     अब पहले की तरह घर की निगहबानी करने के लिए माँ बाबू जी भाई वहन थोड़े ही हैं,अब तो सब कुछ चौकीदार के हाथ हैं अपरिचित विश्वास के साथ,रिश्तों में आई दरार इतनी पैनी सन्नाटेदार झन्नाटेदार मारक भी हो सकती है अब उन्हें आभास हो रहा है लेकिन वापिसी के सभी मार्ग अबरुद्ध है वह स्वयं भी नॉट रिटरनेबल गेटपास लेकर आये थे अब रोज रोज रूठने मनाने का दौर जारी है हर दिन भारी से ज्यादा भारी है अब खिटपिट आम कार्यशैली का अंतहीन हिस्सा हो गया है प्रायश्चित तो है लेकिन बयान किस से करें

जीवन चल रहा है……….खट्टे मीठे अनुभवों के साथ…… ।

    सोचिये और विचार कीजिये अवश्य जब हम  संयुक्त परिवार में थे तब ज्यादा सुरक्षित,स्वतन्त्र,सानन्द थे या अब ? 

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शिवशंकर झा"शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर



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