शेर(चोर और कोतवाल)


【 चोर और कोतवाल!】

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चोर ने बड़ी ही चालाकी से दीवार में नकब

लगा डाला सुनो,

कोतवाली पास ही रही मगर डर की कोई

गुंजाइश न थी,

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चोर और कोतवाल के गलबहियों के चर्चे हैं

वेशक जुबां पर,

मगर जुबां से आबाज ही काफूर हुई कसूर

किसका है,

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खूब करते हो बातें बड़ी बड़ी आजकल तुम रोज महफ़िल में,

मगर और मछलियों से छुपा क्या राज है खारे समुंदर का,

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जंगल में छाया हुआ पैना सन्नाटा चीख चीखकर बोलता रहा,

यहां जो खामोशी है ख़ौफ़ की पैदाइश है उसूलों की नहीं,

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नाव को नदी से पार करने की जिम्मेदारी सनम उनको मिली,

जो नाव के चप्पू को सलीके से गहें कैसे जानने

की जुगाड़ में हैं,

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हिस्से बंटने के किस्से गली के नुक्कड़ तक

पता है बखूब,

मगर जुर्रत नहीं बंगले के अंदर पैर रखने की

सुनो यारो,

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शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर





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