💐कविता💐
तब जमीन के भाव बढ़ते हैं!
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मकानों के भाव आसमान छू गये,
परिवार टूटे भाई भाई बंट गए,
रिश्ते जब सिकुड़ते है,
तब जमीन के भाव बढ़ते हैं,
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जब प्यार में स्नेह में दरारें हुई
दीवारें,घृणाकी,भेद की,रारें हुई,
आपसी कलह,छल, छद्म की,
लूट झूट स्वार्थरतता की ,
भाई भाई जब फरेबी रिश्ते गढ़ते हैं,
तब जमीन के भाव बढ़ते हैं,
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भूख,लालच,
एकाकी जीवन के आनन्द की,
प्रियतमा भार्या के प्रेमानन्द की,
व्यक्तिगत सुख की हूक उठती है,
रिश्तों में स्नेहिल हालात जब बिगड़ते है,
तब जमीन के भाव बढ़ते हैं,
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जमीनें महंगी हो गयी,
टूट गए घर बिखर गये घर,
जब घर अलग चौका चूल्हा अलग,
तब आंतरिक प्रेम भी विलीन होने लगा,
अपने अपने सुख में मन लीन होने लगा,
जब बन्धुत्व नेह धूमिल होते हुए,
ऊंची और ऊंची कगार चढ़ते हैं
तब जमीन के भाव बढ़ते हैं,
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जब संवाद की दूरियां खाई में बदलती है,
निज लाभ की भूख की कोपलें निकलती हैं,
जब भाई भाई पड़ोसी बन गया,
अंतरात्मा पर स्वार्थ का ताला पड़ गया,
सम्वेदना का मूल खो गया,
जब ये सभी घटक खटकते हैं,
तब जमीन के भाव बढ़ते हैं,
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कहीं पर बैर भी था भाई भाई में,
ना रह सके साथ साथ
घर बंटा हाथों हाथ,
रातों रात,
स्थितियाँ इतनी क्यों बिगड़ गयी
दूरियां संवादहीनता के कारण बढ़ गयी,
जब रिश्तों में मिठास के कण घटते है,
तब जमीन के भाव बढ़ते हैं,
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पिता के सपनों के घर में प्राचीरें खिंची,
रिश्तों की खाईंया और संकुचित हो भिंची,,
मुख्य द्वार की गलियां सिकुड़ गयीं,
संकरी हों जकड़ गयी,
टूटता गया स्नेह प्रेम का बंधन,
माँ रह गयी करती करुण क्रंदन,
जब दिखबे और छल से रिश्ते पनपते हैं,
तब जमीन के भाव बढ़ते हैं,
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माँ बाप अपनों से हार गए,
सन्ताने निजस्वार्थ में जिंदा ही मार गए,
माँ बाप का खाना,
उनका अहसान,प्रेम, साया भूल गये,
अजीब कशमकश का दौर है,
भागती जिंदगी का शोर है,
पिता के संरक्षण के दौर में
उनके बनाये मेहनत के ठौर में,
सभी सुकूंन से थे मस्त थे,
अब जमीन की है मारा मारी ,
भाई पर होता भाई भारी,
गर यहीं हाल रहा,
तो ये रिश्तें बिल्कुल दरक जायेगें
हम सिर्फ और सिर्फ,
अपनी विलासिता के बीच,
सिसकते रह जाएंगे,
जब रिश्ते सच्चे रिश्ते मामली खटास से भी
दरकते हैं,
तब जमीन के भाव बढ़ते हैं,
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शिव शंकर झा "शिव'
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर