संस्मरण
मेरा साइकिल प्रेम
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साइकिल ही पर्यावरण की सच्ची प्रेयसी कही जा सकती है जो कभी भी स्वप्न में भी पर्यावरण,वायुमण्डल और वातावरण को प्रदूषित ना करने का अपना प्रेमवचन पूर्ण करती प्रतीत होती है अन्य वाहन धुंआ प्रदूषण और अनेकानेक असाध्य रोगों के पोषक,प्रसारक सिद्ध हो रहे हैं जबकि साइकिल सदा से प्रकृति को स्वच्छ सुंदर रोगरहित करने के पथ पर एकल अग्रसर है चल रही है।
साथ ही साइकिल ही वह सहयात्री है जो आपको उत्तम स्वास्थ्य रूपी अमिट चुम्बन गालों पर कोमलता के साथ छाप जाती है सदा के लिए। साइकिल ही वह सुयोग्य चिकित्सक है जो बिना परामर्श शुल्क के निशुल्क आरोग्य देने की औषधि देती है जीवन पर्यंत, वह हमें विभिन्न रोगों की पकड़ में जद में आने से पूर्व ही एक सैनानी की तरह समक्ष खड़ी हो जाती है हमारी रक्षाहेतु कर्तव्यबोध से सराबोर संलिप्त होकर।
साइकिल की एक और सबसे खूबसूरत अपनी दुनिया है हां वह बच्चों के चेहरे पर सहज मुस्कान लाने की अचूक विधा है।
बच्चों के लिए साइकिल सबसे खूबसूरत तोहफा है शायद ही कोई बच्चा युवा हो जिसे ये उपहार ना मिल चुका हो या वह इस उपहार का इच्छुक ना हो मुझे भी ये तोहफा मेरे सहोदर अग्रज के द्वारा शैक्षणिक काल मे मिल चुका है।
तब में कक्षा ९ का छात्र हुआ करता था सत्र था १९९५/९६ का उम्र थी १५ वर्ष वह मेरे लिए अवर्णीय अकूत सम्पदा से आह्लादित करने वाला क्षण था मैं तब उन सम्पन्न छात्रों की श्रंखला में उन्नत मस्तिष्क और भरपूर रौब के साथ अग्रभाग में स्थापित हो गया था जिनके पास नई साइकिल हुआ करती थी वैसे मैं अपनी कक्षा में सदैव उच्चतम पायदान पर रहा सदैव गुरुजनों का प्रिय,स्वाभिमान तब भी उसी प्रबल चट्टान की तरह अडिग था जो आज भी है।
मैनें अब तक के अपने जीवन काल मे किसी मित्र स्वजन से कोई वस्तु/वाहन मांग कर उपयोग में नहीं लिया चाहे मेरे पास जो भी है जैसा भी है वही मेरी विरासत है थाती है और उपयोगार्थ साधन,आज भी मैं अपनी किसी भी प्रतिष्ठित साथी/स्वजन/मित्र के यहां बिना बुलाये जाने में असहज अनुभव करता हूँ कुछ लोग इसे मेरा अहंकार बताते हैं खैर कोई भी कुछ कहे सब स्वतन्त्र हैं अपनी बात कहने हेतु…
हाँ अगर मित्र किसी वेदना में है संकटकाल में तब मैं सदैव उसके साथ हूँ बिना सोचे समझे मदद हेतु दौड़ पड़ता हूँ,अहम से सराबोर स्वजन मित्र मेरी सूची के अंतिम पायदान पर शोभित हैं।
पाठको स्वाभिमानी होने का अपना अलहदा आनन्द है, मुझसे मेरे छात्र जीवन में कभी भी कोई छात्र मॉनिटर का पद ना छीन सका इसे आप मेरी योग्यता समझे या गुरुकृपा या और कुछ और ये आप पर छोड़ता हूँ।
मेरे अंदर साइकिल से अगाध स्नेह और प्रेमालाप पल्लवित होने लगा था जब में कक्षा ६ या ७ का छात्र हुआ करता था
या यूं कहें तो ज्यादा न्यायपूर्ण होगा मुझे बचपन से ही साइकिल चलाने का बहुत शौक था जब भी मौका मिलता तब ही बड़े भैया की साइकिल उठा ले जाते पैर दबाकर चुपके से ये क्रम मौका पर चौका की तरह हुआ करता था माँगने से कहा मिलने वाली थी उस दौर में साइकिल,उस समय साइकिल ही एक मात्र यातायात का श्रेष्ठतम माध्यम साधन हुआ करती थी। इसके बाद बैलगाड़ी एव कहीं कहीं जुगाड़ और ट्रेक्टर भी यातायात के साधन हुआ करते थे यदाकदा, लेकिन सबसे अग्रिम पंक्ति में साइकिल को स्थान मिलता क्योंकि इसके रखरखाव पर भी अधिक व्यय नहीं होता था इसलिए सुलभ और साध्य साधन थी साइकिल सभी के लिए।
हम रोजाना ही इस विशेष कार्य हेतु मौके की फिराक में रहते कि कब मौका मिले और हम साइकिल लेकर भाग लें हमें क्या लेना देना साइकिल चाहे अपने किसी की हो या घर आये किसी अन्य मेहमान या व्यक्ति की हमें तो चलाने से काम रहता। एक बात और कही बार हम साइकिल को पैदल भगाकर दूर ले जाते देखे जाते उसके पीछे का एकमात्र राज ये था कि कहीं कैंची चलाना शुरू किए और घर के पास ही गिर गए तो लोक लाज चली जायेगी वालपन भी अपनी तौहीन का ध्यान रखता था...
एक बार टीका टीक दुपहरिया यानी भरी दुपहरिया के वक्त गांव के ऊसरा में साइकिल को सीखने हेतु ले गए चुपके से पैर दबाते हुए इस तरह से साइकिल लेकर रफूचक्कर हुए इसका आभास दाएं हाथ से वाएँ हाथ को भी ना हो पाए इस विशेष गुण को समाहित करते हुए साइकिल से प्रेमालाप करने उसे साथ ले भाग जाते घरवालों की क्या विसात कि साइकिल को कब कोई उसका प्रेमी लपक ले गया उसके साथ प्रेमानन्द यानी उससे जीवन का सतत मार्ग की सीखने की इच्छा हेतु….
पाठको साइकिल सीखने के अनुक्रम में प्रथम अध्याय का शुभारंभ कैची की साइकिल चलाने से ही होता है जिसके अंतर्गत एक पैर दाएं पैडल और दूसरा पैर बाएं पैडल में साइकिल दौड़ाते हुए फसाना होता है उस दौरान दांत टूटने और ओंठ फटने का जोखिम बहुत होता है जब ये सभी कठोर अध्यायों जोखिमों चोटों को मन में समाहित कर लेता है प्रशिक्षु साइकिल सवार तब वह पथगामी होता है साइकिल सीखने हेतु,
तब दूसरे अध्याय के क्रम में डंडा चलाने की विधा प्रस्फुटित होती है डंडा की साइकिल चलाते वक्त मुझे कई बार अनेकों बार धूल को चाटने/खेत मे औंधे मुंह गिरने आदि आदि का सुअवसर सुनहरा अवसर मिल चुका है वह बहुत ही आनन्दित करने वाला क्षण हुआ करता था मैं जब डंडा चलाने में पारंगत हुआ उसके बाद,
तृतीय चरण में गद्दी पर बैठकर साइकिल चलाने का क्रम प्रारम्भ हुआ इससे पार पाने के बाद हम सम्पूर्ण साइकिल सवार की श्रेणी में स्थापित हो गए और बन गए प्रशिक्षित साइकिल सवार...
इन विविध अध्यायों को पार करने के बाद एक कुशल साइकिल सवार जनतंत्र में उभर कर आता है और वह फिर मस्त अलमस्त अपनी अलहदा दुनिया का स्वछंद यायावर पत्थर से पानी निचोड़ लेने में पारंगत अनुभव करता है।उसका अपना एक अद्भुत छटा से दीप्त मुखमंडल एव ओजपूर्ण व्यक्तित्व होता है अवर्णीय अकथनीय आदि आदि ।
उस दौर जब भी मैं किसी साइकिल सवार को गद्दी की साइकिल चलाते देखता मेरा मन भी करने लगता कि मैं कब सम्पूर्ण साइकिल सवार बनूँगा कब इस तरह साइकिल बेबाक अंदाज में दौड़ा पाऊंगा ये विचार मस्तिष्क में अनवरत कौंधते रहते आप में से बहुत से साइकिल प्रेमी जानते होंगे साइकिल सवारी के तीन चरणों कैंची,डंडा,और गद्दी का महत्वपूर्ण पाठ पध्दति और सिद्धांत.
सबसे पहले गिरते हैं उल्टे सीधे गिरने का कोई सटीक स्थान नहीं,कोई भंगिमा नहीं,कभी बम्बा में,कभी नाले में,कभी खेत में, कभी रेत में,कभी भैंसिया के नीचे,कभी मूँज के गूदरा पर,कभी बम्बा में,कभी किसी बैठे हुए कुत्ते के ऊपर ये कभी जानबूझकर नहीं करते थे ये हो ही जाता था क्योंकि कोई प्रशिक्षित प्रशिक्षक का मार्गदर्शन तो मिल नहीं पाता था क्योंकि जब साइकिल चुपके से मड़ैया से उठाकर लाओगे तो प्रशिक्षक कहां से लाओगे और हाँ कभी कभी साइकिल का पहिया किसी पुरुष या महिला को अगले पहिये पर भी अचानक बिठा लेता था दोनों टांगों के मध्य स्थान बनाकर इसमें मेरा कोई दोष न था वालक तन साइकिल को नियंत्रित करने में सक्षम न था अनियंत्रित साइकिल सीधी टांगों के मध्य चली जाती और उसी की जद में जाकर खुद भी गिरती और समक्ष को भी गिरा देती क्या करें हैंडल संभल ही नहीं पाता था पूरी कोशिश के बाद भी,
ये हम जानबूझकर नहीं करते थे हड़बड़ाहट,घबराहट में दिल तेज तेज धड़कने लगता था कि अब गिरे कि अब गिरे इसी के चक्कर में साइकिल राहगीर के टांगों के मध्य स्थान ले लेती थी,
ये हम सबके साथ साइकिल सीखने के शैशव काल मे अवश्य हुआ होगा,
और पारितोषिक पुरस्कार प्रशस्तिपत्र के रूप में कभी ना मिटने बाले दाग भी मिलते हैं जो अमिट होते हैं किसी के घुटने में किसी की ठोड़ी में किसी के कोन्ही और अन्यत्र स्थानों पर,ओठ सूजते हैं घोटू फूटते है,मूड़ के भर दगरे में गिरते हैं तब कहीं इतनी बाधाओं के बाद कुशल साइकिल सवार बनते हैं,कभी कभी गॉव के ढोकर अपने सिर पर चरी का गट्ठर ला रहे होते थे तब हम साइकिल ना साध पाते और अगला पहिया उनकी टांगों में घुसा देते क्या करें साइकिल सधती ही ना थी,
इसमें मेरा कसूर ना था, मैं भाग जाता साइकिल छोड़कर फिर चुपके से आता साइकिल उठाता और फिर मस्त हो जाता साइकिल चलाने में,
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साइकिल चलाने का मूल विषय इस प्रकार है एक दिन जेठ की दुपहरिया में साइकिल सीखने ऊसरा में ले गए एकांत में एकाकी,
धूप अपने सबाव पर थी जेठ दुपहरिया तेज तप रही थी मानो सूर्य के साथ आलिंगन करना चाहती हो ऊसरा में दूर दूर तक प्राणी दृष्टिगोचर नहीं हो रहे थे,
तब मैं साइकिल चलाने में इतना मगन हो गया कि साइकिल चलाते चलाते पेडल कब टूट गया पता ही ना चला,
पैडल प्लास्टिक का जो था चलते चलते घिस जो गया था उसका अवसान काल आ गया प्रतीत होता था हम तो मगन थे किसे फिक्र थी पैदल टूट जाने की और हां सच कहूँ तो भान भी ना हो पाया था मुझे वैसे ही जैसे कोई युवा अपनी प्रेयसी की जादुई मंद मंद मुस्कान की चकाचौध में खो जाता है कि उसे पता ही नहीं चलता कि कब साँझ ढलने लगी है।
एक बात सोने पर सुहागा सिद्ध हुई उस दिन हम जल्दी जल्दी में छप्पर से साइकिल उठाकर ले जाने के चक्कर में चप्पलें पहनना ही भूल गए नंगे पैर दगरे के गरमागरम रेत पर भागते चले गए।
इतना अनुराग प्रेम तादात्म्य जो हो गया था वालमन को साइकिल के साथ,कल्पना करिए नंगे पैर और जेठ की धूप साइकिल तप रही थी मगर परवाह किसे थी,साइकिल से प्यार जो परबान चढ़ रहा था,गोल चक्कर में साइकिल चलाने की अद्भुत करतब के चक्कर में मैं अपना नियंत्रण खो गया और गिरा धड़ाम फिर उठ गया और फिर वही करतब ये क्या ये क्या हुआ।
साइकिल का पैडल टूट गया अनियंत्रित होता हुआ मेरा मुहं हैंडल में जाकर लगा एक झटके में मुंह लाल रक्तरंजित,मगर धीरता में कमी नहीं होने दी साहस ने, अंतर्मन आबाज दे रहा था जिसको गिरने और चोट खाने का भय रहा वह साइकिल सवार नहीं हो सकता इधर अंतर्मन उधर दोपहर का दुर्दिन मुझे लगा उस दिन सारे सबक मिलने थे एक साथ।
प्रथम पुरस्कार स्वरूप दोनों ओठों में आंतरिक दरार और सूजन उभर आई रक्त बह निकला धारा प्रवाह चल पड़ा खून रुकने का नाम नहीं ले रहा था मुझे उस वक्त सँभलने का अवसर ना मिल सका और लहू बहा जा रहा था।
तब मैं धड़ाम से मूज के गूदरा में बरम(बम्बा का किनारा) के किनारे गिर गया,अरे ये क्या पेडल टूटने से उसका नुकीला आधार सिरा भाग मेरे घुटने के नीचे मांसल भाग में पैबस्त हो गया और फस गया अब ऊपर ओठ से रक्त प्रवाह और नीचे पिंडली में पैडल की कील आर पार होना, क्या करें क्या ना करें दुबिधा घनघोर आ गयी लगती थी।
अब क्या करें ऊपर मुंह फूटा पड़ा है और नीचे सरिया आर पार लेकिन वाल योद्धा जागा मुझे कोई देख न ले गिरते हुए आप सबको पता होगा साइकिल सवार जब कभी गिर जाता है तो अतिशीघ्र उठता है चोट बाद में देखता है ये पहला गुण मुझमें में आ गया था शायद, नवोदित साइकिल सवार को अपने आत्मसम्मान का डर होता है कोई गिरते हुए देख ना ले।
मैं भी इसी भांति जल्दी में उठा और पैडल की रॉड एक झटके में बाहर खींच दी,मांस बाहर आ गया लहू बह निकला लेकिन कोई परबाह नही परबाह किस बात की शायद तब हम रक्त की महत्ता को समझ ना पाए थे बचपन जो ठहरा,
होठ सूज गये रक्त प्रदर्शन के साथ,और पैडल की लोहे की रॉड घुटने के नीचे मांसल स्थान पर आर पार हो गयी थी एक क्षण में देखा तो होश पाख़्ता लेकिन भय था बड़े भैया आये तो साइकिल चुपके से लाने में मार लगेगी,झटके से पैर से पैडल की रॉड को बाहर निकाला रॉड निकलते ही लथपथ पजामा रक्तरंजित हो गया।
अब घर जाएं तो कैसे,
कैसे मुँह दिखाएं
बम्बा में कूद गए इस प्रयोजन से, खून बहेगा तो पानी में बह जाएगा किसी को पता तो नहीं चलेगा, वालमन रक्त की महत्ता को ना जान सका,जल में जाने कितना रक्त जलप्रवाह में शामिल हो गया पता ही नहीं चला,
ओठ का खून रुक ही नहीं रहा था जब काफी देर तक जल के सानिध्य में रहे तब खून रिसना बंद हो गया,
बनियान से मुंह छुपाए घर आगये प्यार भरी डांट मिली और उपचार भी ये संस्मरण मेरा साइकिल प्रेम से लिया गया है।।
लेकिन साइकिल से अगाध प्रेम कम ना हो सका ये अनवरत जारी है,
मैं उस दिन के बाद पारंगत साइकिल सवार बन गया था और फिर कभी गिरा नही और ना डरा,
ये संस्मरण मुझे मेरे बचपन की उस दुनिया में ले जाता है जब मैं राजा हुआ करता था,
मुंहमांगी मुराद से परिपूर्ण,मस्त अलमस्त सुनहरे दौर में..
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शिव शंकर झा "शिव"
स्वतंत्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
११.१२.२०२१ १२.१६ रा.
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Very good story sir
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