शेर(रहनुमा)

 
(रहनुमा)

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मैं तो बस यूं ही बेबाक अंदाज में किताब

लिखना चाहता हूँ,

गुलामी मौकापरस्ती के दौर में इंकलाब

लिखना चाहता हूँ,

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सियासीजमात आज शायद उस दोराहे 

पर खड़ी है,

लगता है कुर्सी सियासत के उसूलों से 

बड़ी है,

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अब उसूलों कायदों और बायदों की बात

कौन करे,

जब रहनुमा ही चेहरा अपना खुद दाग 

दार करे,

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सियासी सरपरस्ती में बहुत से दागदार 

चेहरे बैठे हैं,

ये किसकी सह में रहनुमाई में असरदार 

बने बैठे हैं,

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तेरी आबाज दब क्यों गयी है आंखें क्यों

डर रही हैं,

ये हरकत ये नजीर सियासत को दागदर

कर रही हैं,

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जो नुमाइंदगी करने को चुने थे मासूम

अवाम ने,

वे अब गलत को गलत कहने में खौफ 

खाते हैं,

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बड़ी शिद्दत से गिरेबाँ में झांकते है औरों 

के रहनुमा,

खुद के दाग से सने गिरेबाँ पर नजर गौर

कौन करे,

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तेरी तकरीरें तेरी जुबान सियासी उसूल 

सब फाख्ता है,

आवाम नफा नुकसान खरीद फरोख्त 

का ध्यान रखती है, 

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रहनुमा क्या मान लिया तुझे "बेसऊर"

रहनुमा,

तू तो अब हमही से आंखें तरेर कर बात

करता है,

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हिमायत करने की एक आदत सी बन 

रही है मौजूदा दौर,

ये सियासत के उसूलों के खिलाफ 

खुली चिंगारी है,

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जम्हूरियत की ताकत को उखाड़ना 

चाहते हो,

तुम क्या फिर कोई गुल खिलाना 

चाहते हो,

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तकरीर वस तकरीर और बड़ी बड़ी तकरीर,

उसूल टूट गए सियासतके बात बड़ी गम्भीर,

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ओहदा की हनक क्या जमाने भर सँभाले रहोगे,

अवाम जब तुम्हे अब्तर समझेगी तब क्या कहोगे,

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आइंदा अब आस तुमसे नहीं होगी सुनो 

सियासतदान,

सियासी उसूल बिक रहे हैं क्यों जानना

चाहता है हिंदुस्तान,

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हर हिन्दोस्तानी की जमीन है ये खून से सींचा

है पुरखों ने,

सभी की बुलन्द आबाज गूंजेगी यहाँ पूरे हक

और सम्मान से,

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शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

१६.१२.२०२१ ११.५९ रा.

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