शेर(गूंगे बहरे ना बनो!)

 

(गूंगे बहरे ना बनो!)

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मेरी जिद है कोशिश है निशान पत्थर पर

बहुत गहरा पड़े,

आदमी जाग जाए अपने हक और हिस्से

की बात पर अड़े,

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किसी के रहम पर रहना नहीं अगर इंसान

जिंदा हो,

तू अपनी अलहदा जिंदगी की नज्म खुद

लिख दोस्त,

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अगर जिंदा हो तो जिंदा दिखा भी करो

मेरे वतन वालो,

मजहबी बयार में कुछ लोग वोटों की फसल

उगाते हैं,

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जोर से और जोर से कुछ पेशे वर लोग चिल्ला

रहे हैं,

बहस पर बहस हो रही है पर समझ कुछ आता

नहीं,

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जिंदा इंसान गूंगे बहरे और कम नजर नहीं होते,

जो इनसे संक्रमित हो जाएं वे इंसान नहीं होते,

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पत्थर भी अब जोर से चिल्लाना चाहते हैं फफक कर,

आदमी के गले से आबाज काफूर क्यों हुई पता नहीं,

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कलम बहुत खुद्दार हो चली है आजकल मेरी

सुनो यारो,

मुझे इनाम और तोहफों से बेशकीमत जुबान

लगती है,

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खैर तुम अब और मुरीद बनना छोड़ दो 

उस शख्स के,

जिन्हें तुम जानते तक नहीं पूरी तरह से

मेरे दोस्त,

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क्या तू जिंदा है मौजूदा वक्त के आदमी यकीं

आता नहीं,

अब तेरी बुलंद आबाजों के शोर क्यूं नही आते

जोरदार,

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हुकूमत की गुलामी निगल जाएगी तुम्हारी नस्ल

को यारो,

एक बार पूरी शिद्दत से हुंकार तो भर अपने हेतु

मौजूदा दौर ,

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जिंदगी भर जबानी नहीं रहनी मेरे हम दम अजीज,

तू लहू के उबाल को परख और वार तीखा कर,

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सियासत की नब्ज टटोलने की जिद ठान क्या ली मैनें,

ये बहुत कमजोर और वादाविहीन हैं जान गया हूं अब,

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शिव शंकर झा 'शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

०२.१२.२०२१ १०.१३ रा.

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