(कुर्सी की चमक!)
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जमाने की नजर तेरी कुर्सी,कद,रसूख पर टिकी
हुई है मित्र,
तू ये ना समझ ये तुझे दिल में बिठाने की
चाह रखते हैं,
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जिसे लोग देखना तक नहीं चाहते थे फूटी
आंख से कभी,
उसे जब कुर्सी मिली तो दूर के लोग भी
रिश्ता बताने आ गए,
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आदमी आदमी में आदमियत अब नहीं
ढूढ़ता मेरे अजीज,
मौका परस्ती से लबरेज इंसान स्वार्थ
सिद्धि देखता है,
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मुझे कुर्सीदार,चमकदार,रसूखदार लोग
नहीं भाते दोस्त,
मेरे अजीज तो फटे कपड़ो में सिलबटें
दबाए मिलते हैं,
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तुम्हारे नाम के सैकड़ो घूमते हैं रोज दर बदर
सुनो यहां वहां,
मगर इस नाम को कुर्सी क्या नसीब हुई लोग
चाहने लगे,
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चिढ़ है मेरी कलम को उन स्वार्थरत नर
विज्ञ लोगों से,
जो मित्रता करते हैं सिर्फ पद और कद
के दायरे से,
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स्वार्थी लोग बगुले सी नजर और शातिर
प्रवाह रखते हैं,
सच्चे साथी नहीं हैं वे जो निज लाभ की
चाह रखते हैं,
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पद मिलने दो तुम एक बार किसी कमजोर
को भी दोस्त,
ये जमीदारी के गुरूर बाले लोग तलबे साफ
फक्र से करेगें,
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हवा कभी रिश्ते रंग जाति और मुंह देख
कर नही रखती,
मगर आदमी रिश्तों में भी निज लाभ को
समा देता है,
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शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
०३.१२.२०२१ १०.३१ प्रा.
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