शेर(टोपियाँ बदल गयीं!)

 

(टोपियाँ बदल गयीं)

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भीड़ का हुजूम आया या लाया गया,

सिर वहीं हैं बस टोपियाँ बदल गयीं,

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टोपियाँ ही टोपियाँ हर ओर नजर आयीं

सलीके से,,

इसकी टोपी उसके सिर करने में बड़े

माहिर हो तुम,

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दाबतें रोज होती रहीं उस आखिरी घर में,

दहलीज के बाहर कुत्ता कौर को बैठा रहा,

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इस शहर की दोहरी सड़क बोल रही हैं,

बहुत कुछ राज है अंदर भेद खोल रही है,

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सन्नाटा क्यों छा रहा है इंसानी जिंदगी में,

यहाँ सच बोलने पर पाबंदी तो नहीं,

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कम्बल एक और आदमी दस नजर आए,

ये खोल में कुछ बाहर कुछ नजर आए, 

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आदमी मौजूदा दौर आंखों में लहू से तर है,

ऊंट किस करबट बैठे मुनासिब नहीं कहना,

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दाबतें और गुफ्तगू का दौर जारी है,

शकुनियों की चाल हर ओर भारी है,

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गली में कुत्ता बहुत जोर से भौंक रहा था,

बहुत दिन बाद कोई पुनःनजर आया,

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चुनावी दुनियां बड़ी गजब की रही,

यहाँ कौन गलत कौन सही,

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जीतने की भरपूर कोशिश बेहतरीन

तरकीबें,

रैलियां फिर तीसरी लहर की सौगात 

देगीं,

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मुसाफिर हैं अनजाने सफर के जान लो

हम,

ये शरीर कब हमसे बगावत कर दे पता

नहीं,

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किताब के हर एक पन्ने में सराफत का सबक है,

आदमी शायद अब इसे पढ़ने से गुरेज करता है,

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खूब नुमाइश करो अपनी खैरात की भरे

बाजार,

कुछ लोग सुर्खियां बटोरते हैं इसी तरह

दोस्त, 

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अब जातियों की सभी बेड़ियां टूटने की

ताक में है,

चुनाव नजदीक है सियासी लोग जीतने

की फिराक में हैं,

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जीना अगर तो हक और शान से जीना सुनो,

आबाज गले तक ना आये उसे जीना नहीं कहते,

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कुछ लोग दौलत के बदौलत चाहते हैं

अदब,

कुछ बात मुंह से नहीं आंखों से कही

जाती है,

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जो दिखता है वह वैसा है नहीं दोस्त

हमराह,

कुछ अपनी आंखों की परख कर के

तो देखो,

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शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

२०.१२.२०२१ ०९.४९ सु.

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