(टोपियाँ बदल गयीं)
------
भीड़ का हुजूम आया या लाया गया,
सिर वहीं हैं बस टोपियाँ बदल गयीं,
------
टोपियाँ ही टोपियाँ हर ओर नजर आयीं
सलीके से,,
इसकी टोपी उसके सिर करने में बड़े
माहिर हो तुम,
--------
दाबतें रोज होती रहीं उस आखिरी घर में,
दहलीज के बाहर कुत्ता कौर को बैठा रहा,
--------
इस शहर की दोहरी सड़क बोल रही हैं,
बहुत कुछ राज है अंदर भेद खोल रही है,
--------
सन्नाटा क्यों छा रहा है इंसानी जिंदगी में,
यहाँ सच बोलने पर पाबंदी तो नहीं,
-------
कम्बल एक और आदमी दस नजर आए,
ये खोल में कुछ बाहर कुछ नजर आए,
--------
आदमी मौजूदा दौर आंखों में लहू से तर है,
ऊंट किस करबट बैठे मुनासिब नहीं कहना,
------
दाबतें और गुफ्तगू का दौर जारी है,
शकुनियों की चाल हर ओर भारी है,
------
गली में कुत्ता बहुत जोर से भौंक रहा था,
बहुत दिन बाद कोई पुनःनजर आया,
-------
चुनावी दुनियां बड़ी गजब की रही,
यहाँ कौन गलत कौन सही,
--------
जीतने की भरपूर कोशिश बेहतरीन
तरकीबें,
रैलियां फिर तीसरी लहर की सौगात
देगीं,
--------
मुसाफिर हैं अनजाने सफर के जान लो
हम,
ये शरीर कब हमसे बगावत कर दे पता
नहीं,
-------
किताब के हर एक पन्ने में सराफत का सबक है,
आदमी शायद अब इसे पढ़ने से गुरेज करता है,
------
खूब नुमाइश करो अपनी खैरात की भरे
बाजार,
कुछ लोग सुर्खियां बटोरते हैं इसी तरह
दोस्त,
------
अब जातियों की सभी बेड़ियां टूटने की
ताक में है,
चुनाव नजदीक है सियासी लोग जीतने
की फिराक में हैं,
--------
जीना अगर तो हक और शान से जीना सुनो,
आबाज गले तक ना आये उसे जीना नहीं कहते,
--------
कुछ लोग दौलत के बदौलत चाहते हैं
अदब,
कुछ बात मुंह से नहीं आंखों से कही
जाती है,
--------
जो दिखता है वह वैसा है नहीं दोस्त
हमराह,
कुछ अपनी आंखों की परख कर के
तो देखो,
------–-
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
२०.१२.२०२१ ०९.४९ सु.
---------