(आँधियों से जंग)
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वह गले बड़े सुकून से लगाता रहा,
नाप खंजर का जाकर बताता रहा,
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समंदर का गुमान जाएगा टूट इस दौर,
कश्तियां अपना बजूद बचाना चाहती हैं,
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वह जाग कर देखता है ख्वाब सुनो,
चिराग अब आंधियों से जंग चाहता है,
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दरख़्त गुरूर में था संभाले हूँ ये जहाँ,,
जड़ें बोली मेरे बिना बजूद कुछ नहीं तेरा,
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चालें जारी रहेगीं साजिशों की हर ओर,
पैरबी कमजोर ना कर देना कहीं देखकर,
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दगा और धोखे का खंजर धार से तर है,
दगाबाजों की बाज सी पैनी नजर है,
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सारी हदें तोड़ने की फिराक में है,
वह हौदा रुतबा बचाने की ताक में है,
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जहर की फसल उगाते रहे वे खूब,
जिन्हें नशा छुड़ाने का जिम्मा मिला,
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कुछ चेहरे सामने मुस्काते है फरेब से,
ये बहुत शातिर हैं अमल रहे मेरे दोस्त,
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खंजर तपाक से पार हुआ दिल में,
सामने अपना दिखा तो दर्द जोरजोर हुआ,
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तू मुझे इतना क्यों अचानक चाह रहा है,
फिर से किसी जुगाड़ में नजर आ रहा है,
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वह गजब की अदा से सराबोर था,
मँझा हुआ बहरूपिया बहुत जोर था,
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ये जमीं जितनी तेरी है उतनी मेरी भी,
इसे हम छोड़ कर नहीं जायेगें ख्याल रहे,
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सड़क बहुत खामोश है उदास है दोस्त,
वह जानती है आदमी दिल से उदास है,
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चुनावी दौर में जहर की खेती उगेगी खूब,
यहाँ हर एक बाजीगर दगा देने में माहिर है,
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सियासी जमीं शकुनियों की शरण में है,
रहनुमा फिर से नए आवरण में है,
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शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
२७.१२.२०२१ ०१.५३ मध्यरात्रि