कविता
(दो हजार इक्कीस)
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जबरदस्त वह गुनगुनाता रहा,
आदमी रातभर गीत गाता रहा,
साल इक्कीस की उसने कहानी कही,
जो हुआ जो घटा मुंह जुबानी कही,
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लोग भयभीत थे लोग कम्पित बहुत,
आदमी आदमी से ही संकित बहुत,
दूरियाँ हो गयी बहुत ज्यादे सुनो,
टूट सारे गए प्यारे वादे सुनो,
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रिश्ते नाते नहीं कोई सपना नही,
मैं अकेला रहा कोई अपना नही,
बाप बेटे को लेकर के सोचे खड़ा,
क्या उठाएगा कंधे पर मेरा बड़ा,
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धर्मपत्नी कहे पास आना नही,
पास में बैठ खाने को खाना नहीं,
पुत्र खुद जो ज्याया अलग हो गया,
तान चद्दर को कमरे में जा सो गया,
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सब हुए वे अलग जो कहे थे सगे,
चार कंधों के दौरान भी ना लगे,
जिनसे रिश्ते घने साथ वे भी नहीं,
आखिरी वक्त में साथ अपने नहीं
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अहम धन का हुआ चूर मेरा सुनो,
अहम गन का हुआ धूर मेरा सुनो,
अहम सत्ता का काफूर होता दिखा,
अहम का वहम भी दूर होता दिखा
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कंधे अपनों के मुझको नही मिल सके,
आखिरी वक्त में साथ ना चल सके,
बहुत लंबी कतारें हैं श्मसान में,
आदमी चूर है फिर भी अभिमान में,
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वह कही जा रही साल इक्कीस थी,
मेरे आंकलन से रही बीस थी,
झोंक भट्टी में डाला हुआ में धुआं,
मेरे कर्मों का फल जो हुआ सो हुआ,
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मेरी आँखों में मंजर सुनो कैद है,
वह सदा वह हवा वह दगा कैद है,
नकली रिश्ते सहोदर सगा कैद है,
टूटा मेरा नशा वह भी सब कैद है,
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आज भी वक्त है बन तू इंसान जा,
है कोई दिव्य शक्ति उसे मान जा,
यूं अहम के वहम में ना ज्यादा उलझ,
तू नहीं है कहीं तुच्छ मानव समझ,
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शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
३१.१२.२०२१ १२.०७ दो.
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