कविता(टूट गया भरम!)

  

कविता

■टूट गया भरम!■

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जब अपना ही अपने को लूट बैठा,

दिल के अंदर सच कम ज्यादा झूठ बैठा,

रस्म अदायगी भर रह गयी जब नातेदारी,

वह अपनों के ही सुख सुकून लूट बैठा,

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बूढ़ी माँ अनाथाश्रम की शरण में क्यों है,

तू फिर भी इंसानों के आवरण में क्यों है,

तेरे रईसी देखकर घिन आती है हमें,

तू इतनी गरीबी लाचारी में क्यों है,

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मन की उदासी बहुत कुछ बोल गयी,

आ रही दरारों की परत खोल गयी,

टूट गया भरम सब अपनों के होने का,

द्वार की चौखट रिश्तों में विष घोल गयी,

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झूठ और कपट का बोलबाला क्यों है,

तू देखने मे मलूक दिल से काला क्यों है,

नकली मुस्कान लवों पर लाने में माहिर है,

अरे बता तू इतना स्वार्थ वाला क्यों है,

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दिल नहीं मिलें तो गले लगाना ठीक नहीं,

दौलत का नशा पास लाना ठीक नहीं,

हम दरबदर कर देते हैं ऐसे रिश्ते सरेराह,

हमें रसूख का रौब दिखाना ठीक नहीं,

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तू नकली फरेबी दोस्ती से भरमाता क्यों है,

तू नकली लिबास में पास आता क्यों है,

जब जरूरत पड़ी तेरी तू नदारद रहा सुन,

तू हमें इस तरह बहकाता क्यों है,

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इंसान तेरी फितरत समझ से बाहर क्यों है,

धोखा फरेब तेरी हरकत जगजाहिर क्यों है,

तुझे गले लगाऊं या परे कर दूं छिटक कर,

तू इतना खुदगर्ज कपट में माहिर क्यों है,

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शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

१२.०१.२०२२ १२.०९ मध्यरात्रि

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