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सियासी कश्ती में वह सवार हो रहा है
शान से,
अक्सर किनारे आते आते कश्तियाँ डूब
जाती हैं,
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वह दिखाता रहा गुरूर अपनी सियासी
जमात का,
कभी दौलत का कभी ताकत का कभी
जात का,
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जुगाड़ जोड़तोड़ गठजोड़ चालें सियासी
दांव सब होगें,
कुछ इधर के उधर होगें कुछ उधर के
फिर इधर होगें,
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उसकी पैशानी पर गजब की चमक दिखी,
आज फिर उसकी टिकट लाखों में बिकी,
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दरिया अब उफान पर और उफान पर
आ रही है,
ये सियासी दोस्ती की मशाल आग ला
रही है,
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जंग जारी है जीत की हर ओर हर तरफ,
जमीन खामोश है वक्त पर चोट करने को,
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अपने दल से वास्ता रखा ताउम्र उस
कार्यकर्ता ने,
वक्त आया चुनाव का तो फिर रहा
खाली हाथ,
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समझ से परे रही इनकी तकरीरें वादे
वक्त वक्त पर,
बदलता रहा ये निशान, टोपी और
अपना घर,
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अवाम सोच में है कशमकश में है मंथन
का दौर जारी है,
ये रहनुमा हमारा साथ देगा या दगा दे
जाएगा फिर से,
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जब जमीन पर चारों खानों चित हुआ
सयाना रहनुमा,
होश फाख्ता थे सब जातीय समीकरण
बिगड़ गए,
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उस घर की चौखट से सिसकियों की सदा
आती रही,
लोग बहुत थे आसपास मगर इंसानियत
जाती रही,
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शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
१४.०१.२०२२ ०५.५४ सांय
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