शेर(सियासी कश्ती)


   【सियासी कश्ती】

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सियासी कश्ती में वह सवार हो रहा है

शान से,

अक्सर किनारे आते आते कश्तियाँ डूब

जाती हैं,

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वह दिखाता रहा गुरूर अपनी सियासी

जमात का,

कभी दौलत का कभी ताकत का कभी

जात का,

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जुगाड़ जोड़तोड़ गठजोड़ चालें सियासी

दांव सब होगें,

कुछ इधर के उधर होगें कुछ उधर के

फिर इधर होगें,

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उसकी पैशानी पर गजब की चमक दिखी,

आज फिर उसकी टिकट लाखों में बिकी,

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दरिया अब उफान पर और उफान पर

आ रही है,

ये सियासी दोस्ती की मशाल आग ला 

रही है,

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जंग जारी है जीत की हर ओर हर तरफ,

जमीन खामोश है वक्त पर चोट करने को,

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अपने दल से वास्ता रखा ताउम्र उस

कार्यकर्ता ने,

वक्त आया चुनाव का तो फिर रहा 

खाली हाथ,

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समझ से परे रही इनकी तकरीरें वादे

वक्त वक्त पर,

बदलता रहा ये निशान, टोपी और 

अपना घर,

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अवाम सोच में है कशमकश में है मंथन 

का दौर जारी है,

ये रहनुमा हमारा साथ देगा या दगा दे

जाएगा फिर से,

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जब जमीन पर चारों खानों चित हुआ

सयाना रहनुमा,

होश फाख्ता थे सब जातीय समीकरण

बिगड़ गए,

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उस घर की चौखट से सिसकियों की सदा

आती रही,

लोग बहुत थे आसपास मगर इंसानियत

जाती रही,

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शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

१४.०१.२०२२ ०५.५४ सांय

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