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ता-क़यामत तक फख्र से रहेगें हर दौर,
अब उनमें हमें खरीदने की ताकत ना रही,
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उनकी हर हरकत पर नजर है शिद्दत से,
उन्हें लगा हमें उनकी कारगुजारी की खबर ना रही,
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इल्म रहे जमीन दो गज ही मिलेगी दफन के लिए,
आखिरी वक्त किसी की भी वादशाहत ना रही,
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मौत का स्याह फरमान जारी हो गया जब,
अब उनमें इसे रोकने की ताकत ना रही,
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वह वक्त था दौरे जमी हुक्म को आमादा थी,
आज उनकी विरासत की वह हनक ना रही,
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गरीब की रोटी मुफलिसी में वह लूटता रहा बेखौफ,
हड्डियों ने पुरजोर सजा मुकम्मल की अब हरकत ना रही,
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वह जब रसूख,दौलत से सराबोर अर्श की बुलंदियों पर रहा,
तब शायद उसमें वक्त की फितरत जानने की फुर्सत ना रही,
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हुजूम लोगों का जिंदाबाद करता रहा सुबहे शाम रोज,
उसमें उस भीड़ की चाहत जानने की आदत ना रही,
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परिंदों के पर वह काटता रहा बेखौफ अपने दौर बेहिसाब,
ये वक्त का हिसाब बड़ा जालिम है उसमें ये समझ ना रही
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गलतियों पर गलतियां करता रहा वह रसूख के दम पर,
हर समय हर वक्त एक सा नहीं ये फिकर ना रहीं,
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आखिरी उस छोर पर कौन गमगीन है दर्द से बेहिसाब,
वह बादशाह था बेशक मगर इंसानियत ना रही,
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अब उसे मलाल हैं रंजओगम है अपनी बे हया हरकतों का,
हाथ से रेत फिसल गयी अब वह बात ना रही,
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उससे कह दो कोई अब भी सुधरने की बात मान ले,
वक्त फिसलने को है सदा ना दिन,सदा रात ना रही,
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शिव शंकर झा "शिव"
स्वतंत्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
१८.०१.२०२२ ११.४८ पूर्वाह्न