कविता 💐★विभाजन★💐

              

कविता

💐💐★विभाजन★💐💐

  

भाई भाई की कलह जब द्वार तक आई,

खुली रिश्तों की तुरपन छटी स्नेह की काई,

आत्मसनेह बुद्धि विवेक सब चूरचूर हुआ,

आपसी समझ सुचिता मोह धूरधूर हुआ,

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निज स्वार्थ हेतु "रक्त" रक्त से भिड़ गया,

संवादहीनता के कारण द्वन्द्व छिड़ गया,

एक दूसरे को समझने हेतु कोई राजी न था

दर्द वेदना विकट समय में वह साझी न था,

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हर ओर सिर्फ स्वार्थ का बोलबाला दिखा,

हिस्से की खातिर दिल दिमाग काला दिखा,

रिश्तों की तुरपाई ज्यादे दिन ना टिक सकी,

पुरखों की विरासत कौड़ियों के भाव बिकी,

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अब वे सगे दूर दूर दर्प में चूर रहने लगे,

समय की चाल उपहार मान सहने लगे,

देहरी के बाहर जब बात निकली टूटन की,

कलह क्लेश संवादहीनता और फूटन की,

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बाहरी आक्रांताओं के सुनहरे दिन आगए,

जयचंद की बड़ौदत पृथ्वी फिर मात खा गए

बाहरी शत्रु मौका पर चौका मारता रहा,

अकेला खड़ा बार बार वह हारता रहा,

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समय की चाल छल छद्म जब समझ आये

मुद्दत के बाद सहोदर फिर उसे याद आये,

मन की मधुर स्नेह बेल पुनः झंकृत हो गयी

स्वार्थमय लोभ की आशा सूक्ष्म हो खो गयी

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क्लेशपूर्ण बंटवारा मर्म तक भेद जाता है,

ध्यान रहे विपदाकाल रक्त ही याद आता है,

विभाजन सिर्फ धन दौलत का ही नहीं होता

बंटबारे का दंश सरलता से यूं ही नहीं धोता,

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ह्रदय के मर्म नेह प्रेम का ना भेदन हो,

ख़ुशी ख़ुशी धन सम्पदा का विभाजन हो,

ध्यान रहे स्वजन का कहीं दिल ना टूट जाये,

इतना तो रहे ही जब वह मिले तब मुस्कराए,

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बुरे वक्त में सिर्फ अपने ही काम आते हैं,

मौकापरस्त दौलत के वक्त भिनभिनाते हैं,

विपरीत वक्त वह दूर दूर नजर नहीं आएंगे,

हर दौर अपने ही सगे स्वजन साथ आएंगे,

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शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

२९.०१.२०२२ १२.४९ अपराह्न

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