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अंधी भूख दौलत और शोहरत की इतनी बढ़ा
ले गया,
बगल की दीवार सिसकियों में रही तू मस्त
सो गया,
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बूढ़ी माँ पनाह मांगती रही दर दर हो
दर बदर,
तू मासूका की बांहों में बेसुध मदहोश
पड़ा रहा,
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पानी की लहरों को जुदा करने की फितरत ठीक नहीं इस वक्त,
इंसान तो इंसान है इसमें भेद की गुंजाइश होना ठीक नहीं,
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सिसकियों आहों की सदा अब तेरे कानों से तौबा कर चुकी है,
पता चला है तू सब्जबाग की हरियाली रुत में
मगशूल है,
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पानी की बूंद जुदा ना हो सकी जमीं और समंदर से,
ये प्यार बहुत गहरा है सदा सदा के लिए इल्म रहे,
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पकड़ से दूर जाना चाहता है मौत के साये
आगोश से तू,
अब देर काफी हो गयी क़दमो में अब बची
ताकत नहीं,
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तेरी हरकतों,नाइंसाफियों का दंड है ये,
अब सिर से पानी उठ चुका है याद रहे,
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ए इंसान तू कुदरत से बहुत खिलबाड़ कर चुका,
अब करबट बदलने वाली हूँ ये याद रहे,
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जहर की फसल उगाता रहा तू अपनों के
वास्ते,
वही फसल मय मुनाफे चौखट के अंदर
आ गयी,
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तुझे इतना गुमान हो गया मेहमान आदमी,
तेरी साँसों का क्या बजूद है पता है तुझे,
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अब तेरी बारी आ गयी खुद को खुदा समझने
वाले,
मौत अब तेरा दामन थामना चाहती है
रोक कर दिखा,
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शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
०७.०१.२०२२ ११.०५ सु