शेर(लहरों को जुदा ना कर!)

 


(लहरों को जुदा ना कर!)

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अंधी भूख दौलत और शोहरत की इतनी बढ़ा

ले गया,

बगल की दीवार सिसकियों में रही तू मस्त

सो गया,

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बूढ़ी माँ पनाह मांगती रही दर दर हो 

दर बदर,

तू मासूका की बांहों में बेसुध मदहोश

पड़ा रहा,

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पानी की लहरों को जुदा करने की फितरत ठीक नहीं इस वक्त,

इंसान तो इंसान है इसमें भेद की गुंजाइश होना ठीक नहीं,

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सिसकियों आहों की सदा अब तेरे कानों से तौबा कर चुकी है,

पता चला है तू सब्जबाग की हरियाली रुत में

मगशूल है,

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पानी की बूंद जुदा ना हो सकी जमीं और समंदर से,

ये प्यार बहुत गहरा है सदा सदा के लिए इल्म रहे,

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पकड़ से दूर जाना चाहता है मौत के साये

आगोश से तू,

अब देर काफी हो गयी क़दमो में अब बची

ताकत नहीं,

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तेरी हरकतों,नाइंसाफियों का दंड है ये,

अब सिर से पानी उठ चुका है याद रहे,

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ए इंसान तू कुदरत से बहुत खिलबाड़ कर चुका,

अब करबट बदलने वाली हूँ ये याद रहे,

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जहर की फसल उगाता रहा तू अपनों के 

वास्ते,

वही फसल मय मुनाफे चौखट के अंदर 

आ गयी,

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तुझे इतना गुमान हो गया मेहमान आदमी,

तेरी साँसों का क्या बजूद है पता है तुझे,

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अब तेरी बारी आ गयी खुद को खुदा समझने

वाले,

मौत अब तेरा दामन थामना चाहती है 

रोक कर दिखा, 

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शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

०७.०१.२०२२ ११.०५ सु

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