★ग़रूर का लबादा★
(१)
गरूर का लबादा क्यूँ ओढ़ बैठे हो जनाब,
देखो फुर्सत निकाल के अपना भी हिसाब,
(२)
हमें तुमसे ना कोई गिलां है ना शिक़वा,
फखत अदाबत इतनी तुम आदमी ना रहे,
(३)
आदमी ही आदमी दिखते तो हैं हर ओर,
गौर से देख आदमी गुमशुदा हो चला है,
(४)
मांग मांग कर कमजोर होते जा रहे हो,
खुद्दारी छोड़ किस ओर दोस्त जा रहे हो,
(५)
शहर में शोर ही शोर है हर ओर जोरदार,
किसी के हिस्से गम आये किसी के बहार,
(६)
वक्त भी वक्त से गुफ्तगू करता दिखा,
गजब आदमी था कौड़ियों के भाव बिका,
(७)
खौफ के आगोश में दम ना तोड़ देना,
सच लिखने से पहले कलम ना छोड़ देना,
(८)
उसकी होगी सरदारी शहर में हर ओर,
तुम अपने हौसलों को बेदम ना छोड़ देना,
(९)
जो लिबास बदलते थे परख परख रोज
रोज नए,
कफ़न की चादर ओढ़ ली चुपचाप बिन
कुछ कहे,
(१०)
उसकी इसकी सबकी कहते हो बात दिन रात,
कभी अपनी भी खामियों की बात किया करो,
(११)
नजर को साफ कर इल्म कर आदमी,
जमीर जिंदा रख कुछ फिक्र कर आदमी,
(१२)
हक की ईमान की जंग जारी रहे ताउम्र,
हनक को देख कारबां ना रोक देना कहीं,
(१३)
उससे मत कहना मन की कोई बात,
जो जुबान बेवक्त बोलने की आदी हो,
(१४)
खैर उसकी जो आदत है सुधर जाएगी,
हर तरफ जब सदा प्यार की आएगी,
(१५)
उसकी ताजपोशी पर गुमान है होना चाहिए
अब नई बयार के साथ नई सौगात आएगी,
(१६)
लहू से बने रिश्ते जब दगाबाज होते गए,
अपने लगे बैरी बाहरी सरताज होते गए,
💐……….💐
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
१२.०३.२०२२ ०३.०२ अपराह्न