शेर★आंखें बोलती हैं !★


शेर

आंखें बोलती हैं !


कशीदे पढ़ते गए वे यूं ही फरेब से,

नजर कमजोर थी "नजर"नहीं आए,


अरे आंख मिलाने से शर्माता क्यूँ है,

हमें मालूम है "सब"दोस्त छिपाता क्यूँ है,


आंखों से आंखे अरे क्यों छुपा रहा है,

जहर है या दबा क्या क्या"दबा"रहा है, 


कभी झूठ नहीं बोलती सुना है आंखें,

इन्हें परखने को बस इक नजर चाहिए,


गुमशुम कशमकश में इंसान दिखता है,

खबर है आदमी बाजार में रोज बिकता है,


हवा की सांस घुटती है चमन के साये में,

पानी बस घूट भर पानी को जंग करता है,


दरख़्त को अपने साये से ही खौफ है,

उसे अब यहाँ बैठने को दिल नहीं करता,


परिंदे बैचेन हैं उसकी गिरफ्त में आकर, 

"पर"तो हैं अपने मगर उड़ नहीं सकते,


उसको लगा मेरी खबर उन्हें है ही नहीं,

मगर सुराग उस घर से ही रोज मिलता रहा,


सुकून के शहर में ये कैसी सुगबुगाहट है,

गली के आखिरी छोर में छटपटाहट है,


जहर में बुझी ख़ंजर वह क्यों छुपाए है, 

इतनी बगावत वह सीने में क्यों दबाए है,


वक्त मिले तो लिखना अपनी किताब भी,

इश्क,रिश्क,चाह,आह,फरेब का हिसाब भी,


बारूद इतनी थी उसके जहन में बदले की,

वह तो बस मौके की तलाश में चलता रहा,


समंदर में तूफान में कश्तियां डूबने को हैं,

कुछ घमंड के साये में हस्तियां डूबने को हैं,


चिंगारियों पर नजर रक्खो छप्पर ना जला दें कहीं,

मजहबी आग के शोले हंसता घर ना जला दें कहीं!


रंग गुलाल बहार आब प्रभाव सब मिला
लो होली में,

हनक सनक रुआब जलन सब जला दो

यार होली में,


रूखी सूखी बैरंग जिंदगी क्या क्या बटोर रक्खा है,

दिखा तो सही यार"दामन"क्या क्या जोर रक्खा है,


इंसाफ को मांगते मांगते वह बेहाल हो चला,

तारीख पर तारीख मिली वह कंगाल हो चला,


शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

१७.०३.२०२२ १२.३४ पूर्वाह्न म.रा.



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