गजल★फ़ासला★

   

  गजल

फ़ासला

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(१)

उठो जागो सबेरा हो गया है,

शहर में हर ओर पहरा हो गया है !

(२)

जंग अपनी स्वयं लड़नी पड़ेगी सुन,

गर जिंदा हो तो पहल करनी पड़ेगी सुन,

(३)

तुम उसके मातहत कब तक रहोगे,

हाँ हम भी जिंदा हैं बताओ कब कहोगे,

(४)

खौफ के साये में रह कर रुखसत हो गए,

ये जिंदगी थी या मौत से बदतर सफर,

(५)

लहू में आग हो फौलाद सी तब ठीक है,

वैसे रहमोकरम पर आदमी तो नहीं जीते,

(६)

भोर का वक्त है पर रात होती जा रही है,

चलो रोशन करें आंगन अंधेरी छा रही है,

(७)

अपना बजूद रुआब सख्शियत बनाओ,

आदमी हो साँसदार कुछ हैसियत बनाओ,

(८)

रिश्वत पर रिश्वत खूब लेता रहा रोज रोज,

उसे गुमान था ये ओहदा मेरी विरासत है,

(९)

दफ्तर में बैठ कर करता रहा फैसले रोज,

ओहदे के रौब में वह गलतियां दबाता रहा,

(१०)

वक्त बीता नौकरी गई औलाद बेकार हुई,

मर्ज फैला जिस्म में वक्त की घनी मार हुई,

(११)

गुजारिश कमजोर की कान तक नहीं आती,

सुनो वह बहरा है उसे तेरी सदा नहीं आती,

(१२)

चीखती चीखती लौट आयी उस चौखट से

वह बेबश,

उसे यकीनन एतबार था अब इंसाफ नीलाम 

नही होता,

(१३)

वह फ़कीर की झोली से भी सिक्का उठा 

ले गया,

कोई औऱ नही शायद हुकूमते मुलाजिम

रहा होगा,

(१४)

उन्हें मुलाजिम कहूं या कहूं खुलेआम

मुलजिम,

जिन्हें बेकाम की तनखा और काम की

रिश्वत चाहिए,

(१५)

उसे खबर न थी शायद अपने रुखसत 

होने की,

भनक लग जाती तो बात रिश्वत से बना

लेता,

(१६)

कौन कहता है उन्हें खबर नहीं बख्शीश

बंटने की,

हिस्सा उनका भी पहुँच जाता है सफेद

थैले में,

(१७)

फरियादी पहुँच गया हुकुम के दरबार

उम्मीद लिए,

उसे उम्मीद थी यही मेरे खुदा के समान

बैठे हैं,

(१८)

फ़ासला बहुत कम था उस आदमी का 

उस आदमी के बीच,

वह चिल्लाता रहा अश्क भर भर मगर 

उसे नजर नहीं आया,

(१९)

हार कर गर इंसानियत तुम क्या करोगे,

इस महीन तुरपन की उमर अब हो चली है,

(२०)

पता है बाजार में मिलती नहीं मोहब्ब्त

खरीदने से,

ये तो बस दिलों में घर बनाती है मुफ्त 

में यूँ ही, 

💐💐💐💐💐

शिव शंकर झा "शिव'

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

💐💐💐💐💐

२०.०३.२०२२ ११.३८ अपराह्न 



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