गजल★रहम की उम्मीद★

गजल

रहम की उम्मीद

अदब और खौफ दोनों जरूरी हैं जमाने में,

फखत सराफत से जिंदगी बसर नही होती!


दरख़्त देता रहा सुकून भरी हवा उम्र भर,

फिर भी उसे आखिरी वक्त काट डाला गया,


रहम की उम्मीद उनसे नहीं करना हरगिज,

लहू से जीभ जिनकी तरबतर हो चली हो,


मांगने से कुछ नहीं होगा अब शायद सुनो,

हक को छीनने का रिबाज है मौजूदा वक्त,


महज चंद पलों की जिंदगी बख्शी हैं रब ने,

मगरूर किस बाबत है जरा समझा तो सही,


चंद दौलत क्या आ गयी उसके हिस्से में,

वह तो इतना मगरूर हुआ आदमी न बचा,


शरीफ़ की हैसियत कुछ लोग नहीं जानते,

शराफत बुजदिलों का काम लगता है उन्हें,


रखते रहे तल्खियाँ ख्वामख्वाह उम्र भर,

आखिरी वक्त का कुछ ख्याल किया होता,


वह खैरात देते हुए भी मखौल उड़ाता है,

अब रोटी देते हुए सेल्फी लेने का दौर है,


उनको हरगिज भी खबर ना लगे,

वक्त कुछ ठीक नहीं मौजूदा वक्त,


चंद अल्फाज ही दिलों को जोड़ देते हैं,

उनसे कह दो कुछ लफ्ज दिल तोड़ देते हैं,


ईमान बिकता है सरेबाजार नीलाम होकर,

कुछ लोग बोली लगाने का हुनर रखते हैं, 


आँधियों में जलाकर दिखा चिराग तो 

कुछ मानें,

गलत को गलत खुलेआम कह सके तो  

आदमी जानें,


होगा वह अपने लिए शहरे अमीर या

रियासत दार ,

अगर लहजा शालीन न हो तो ठुकरा 

दूं खुलेआम,


उम्र बेशक रहे छोटी सी तो कोई बात नहीं

मेरे रब,

आखिरी वक्त तक सिर ना झुके इतनी सी

बख्शीश दे,


जब सांस जाने लगी और आगयी मौत

चौखट पर,

हकीम ने मुस्करा कर कहा तेरी दौलत 

कहाँ गयी !


धूप को अपने ही साये से खौफ होता 

जा रहा है,

दरख़्त गमगीन है अब परिंदे क्यों

नहीं आते!


शिव शंकर झा "शिव'

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

२३.०३.२०२२ ११.१९ अपराह्न रा.



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