कविता
💐मित्र और शत्रु!💐
भय नहीं हमको तनिक गर शत्रु भारी
विकट हो,
छद्म शत्रू भेष साजे मित्र गर निकट हो
सन्निकट हो,
है प्रत्यक्ष समक्ष शोभित शत्रु का वंदन
करेगें,
भितरघाती रूप बदलू मित्र का मर्दन
करेगें,
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चीर दो दो फांक ह्रदय मित्र शत्रू हो
तुम्हारा,
मनुज ऐसा कर सकेगा क्या भला
तेरा हमारा,
परख लो आप भी अपने ह्रदय से
मित्रता को,
मित्र के ही भेष में पोषित संजोए
शत्रुता को,
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सजगता से कर किनारा जो तुम्हें रोके
प्रगति से,
दूर हो जाओ स्वतः ही जो छले शठ
बुद्धि मति से,
जो तुम्हें व्यसनों में डाले कर किनारा शत्रु
सम ही मानना,
हे मेरे प्रिय सरल मानव मित्र रूपी शत्रु को
पहचानना,
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रूप बदले आ खड़े हैं बहुत तेरे समझने
की बुद्धि ला,
कुछ विवेकी बन सरल मानव समझ में
सम्रद्धि ला,
तोड़ दो सम्बन्ध उनसे मार्ग रोके
सफलता का,
साथ रहना छोड़ दो जो मार्ग दे दें
विफलता का,
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हैं बहुत से मित्र अब भी इस धरा पर
सौंप दें सर्वस्व सारा,
गर मिले ऐसा स्वजन सम मित्र भाई सब
तुम्हारा ही तुम्हारा,
ज्ञानरूपी चक्षु खोलो बात तौलो फिर ह्रदय
की बात बोलो,
ज्ञान का दीपक जलाओ मित्रता में प्रेम
करुणा जोश घोलो,
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जो सदा स्पष्ट हित की बात कहता मित्र सच्चा,
वह न धोखा दे सकेगा वह न स्वारथ रत रहेगा,
वह भरोसे का मनुज है जो न मिश्री
अधिक घोले,
साध लो रिश्ता उसी से जो सदा स्पष्ट
अरु कटु सत्य बोले,
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शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
प्रकाशित संसोधनों के साथ
०१.०४.२०२२ ०८.१० पूर्वाह्न
ये कविता ०१.०४.२०२१ को लिखी गयी