गजल★जनता दरबार.★

 

गजल

जनता दरबार

(१)

ये आकाश इतना क्यों तप रहा है पता 

कीजिये।

अरे इंसानियत बख्श दो और ना खता 

कीजिये।

(२)

अगर ये काम करतीं सही गर दफ्तरों की

फाइलें।

जनता दरबार लगाने की जरूरत क्या थी 

जनाब।

(३)

शायद खानापूर्ति है हुकूमत और हाकिम

के बीच।

मातहत हैं साहब की बस हॉ हजूरी के

लिए।

(४)

लिखा है चौखट पर दलाल और कुत्ते ना 

प्रविष्ट हों।

टोस्ट पर मक्खन लगा कर खूब मक्खन 

बंट रहा है।

(५)

भागते भागते थक गया जब फरियादी

तेज धूप में।

दफ्तर की चौखट पर पहुंचा साहब तब 

तक उठ गए।

(६)

पूछता है गिड़गिड़ाकर मातहत से बात 

बूढ़ा आदमी।

साहब अंदर ही तो हैं क्या बात एक हो

पाएगी।

(७)

फरियाद सुनने का वक्त अब पूरा हुआ सुन

आदमी।

साहब अब कुछ खा रहे हैं कल पुनः आना

सुबह।

(८)

इस तरह होती हैं अब भी रोज भारी

गलतियां।

हाथ बांधे क्यों खड़ा है देख इनकी

गलतियां।

(९)

जो लुटा हो आदमी माजरा सिलसिलेवार

कैसे बताए।

लूटेरो से खुद को बचाये या वक्त की सूची

बनाये।

(१०)

अजीब प्रश्न दागते हैं फरियादी के सामने 

ये मुलाजिम।

काम इनका कुछ नहीं बस काम को है

टालना।

(११)

हांफता आया लिए इंसाफ की गुहार थाने

आदमी।

देखते ही वहाँ का मंजर दिल दिमाग हिल

गया।

(१२)

है लिखा बेशक करो सम्मान आया है जो

फरियाद ले।

मगर ऐसा बहुत कम होता दिखा है बात

ये भी है सही।

(१३)

फाइलों के खेल में बाजीगरी करते हैं 

मुंशी खूब।

है नहीं कुछ भी छुपा मालूम है सब

आपको।

(१४)

कौन कहता है सभी खुशहाल चेहरे हैं

यहां।

नजर दौड़ाओ नजर कर बेहाल चेहरे हैं

यहां।

(१५)

जहां बदल जाती हैं रिपोटें चंद पैसों के
बदौलत।

कौन कहता है कि सिस्टम में हुई रद्दो 

बदल।

(१६)

कानून तोड़ने का शौक उनको है बहुत

सुनिए जनाब।

या तो है वह रहनुमा या तो दौलत 

बेहिसाब।

(१७)

कौन बदलेगा हमारी कुर्सियां सुनिए 

जनाब।

तबादले का खेल सारा जानता हूँ मय

हिसाब।


💐जयहिंद💐

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

१९.०४.२०२२ ०८.२९ पूर्वाह 










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