बिगाड़ ली उसने इससे उससे सभी से।
वजह निकली तो गरमी ही वजह निकली।
गरमी मिटा देती है दोस्तो गुलजार बस्ती।
ये बेरहम दिलफेंक है मिटा देती है हस्ती।
गर्मी की गरमी पूरे शबाब पर है इस दौर।
चलो इंतजार करते हैं बरसात आने का।
तेरी हनक और गरमी काफूर हो जाएगी।
हवा मेघ की बारात अपने साथ लाएगी।
आशियाना जलाने का शौक है तुझे खूब।
बादलों की जिद है झोपड़ीं जलने ना पाए।
गरमी में तर है तो सुन बात इक ए आदमी।
गरमी सदा रहती नहीं जान ले तू आदमी।
हवा किसकी है कब तक है पता नहीं।
वह नासमझ है इसमें उसकी खता नहीं।
उसकी बेवजह गरमी उसे बर्बाद कर गयी।
जो शांत रहे रुख को देख आबाद कर गयी।
बढ़ रही थी रोज गरमी उसमें दौलत की।
वक्त रुखसत का हुआ हाथ खाली ही रहे।
तू कितना भी गुमान कर ले हैसियत का।
आता है वक्त जरूर रद्दोबदल के वास्ते।
फैसला सुनने का हौसला तो रख।
मुकर्रर सजा हो या बरी सब्र तो रख।
यहां की हवा अब गर्मी से तरबतर हो चली।
चलो चले नदी के किनारे दोपहर हो चली।
सियासत की गर्मी रहनुमाओं में बढ़ रही है।
मानता ही नहीं कुछ वक्त ही ओहदा रहेगा।
गर्मी भी जल रही है अंदर ही अंदर दोस्तो।
उसकी ये आदत इंसानियत को खा गयी।
रखो गर्मी जरूर जिंदा रहने के लिए।
मगर किसी का घर ना जले ये इल्म रहे।
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
२९.०४.२०२२ ०८.२१ पूर्वाह्न