जयंत औऱ रीता नवविवाहित दम्पति को केंद्र में रखकर इस लेख को आपके मध्य रख रहा हूँ ...
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हम जब अपने को बड़ा मानते हुए अपने पैरों पर खड़े हुए हममें से कितने ही बडी चतुराई से बौद्धिक चातुर्य से अपने परिवार से आर्थिक,सामाजिक रूप से विलग हो गए मन ने प्रियतमा जीवनधारा पत्नी जी से संवाद किया और सोचा अब हमारी आय भी नौकरी,व्यवसाय से बढ़ती जा रही है क्यों न अपने लिए अब कुछ अलग किया जाए,विनियोग,भवन,जमापूंजी एकत्रित करें निज आवास बनाएं,
ताकि अपनी पहचान दिखे और रुतवा समाज के मध्य दृष्टिगत हो,हम शायद इसी विचार मंशा के साथ धीरे धीरे सदे कदमों से अपनी पत्नी जी से मन्त्रणा करते हुए उनकी आज्ञा का अनुपालन करते हुए परिवार को विभाजित करने का स्वप्न उर अंचल में पल्लवित करते हुए अलग रहने का सपत्नीक निर्णय ले लिये, हमें पता है कहीं कहीं विचारों में विषमता के कारण आपसी रिश्ते ज्यादा मधुर नहीं रह पाते हैं लेकिन हमें उन्हें मधुर बनाने का प्रयास अवश्य करना चाहिए एक बार नहीं कई बार,चाहे हमें सफलता मिले या विफलता!
प्रिय भार्या के सुख कामना एव भौतिक आनन्द को अधिक श्रेष्ठ मानते हुए भवन खरीदने का अंतिम निर्णय ले लिया गया भवन के मुख्य प्रवेश द्वार पर प्रिय भार्या के नाम की पट्टिका स्वर्णाक्षरों में लगा दी गयी अपना नाम पत्नी जी के नाम के नीचे पायदान पर रखा गया भवन के बाहर मातृपित्र निवास के लिए शायद अब स्थान रिक्त न था,बड़े ही स्वाभिमान,आत्माभिमान के साथ भवन अपनी पत्नी जी को उपहार स्वरूप भेंट कर दिया गया एव एकांतवास प्रफुल्लित गात आनन्दपूर्वक,सहधर्मिणी के साथ आनन्द की असीम सीमा को फांदने की पुरजोर कोशिश करते हुए भौतिकानन्द में मग्न हो गए।
अब परिवार के साथ दिवाली,होली अन्य मंगल पर्वों मांगलिक आयोजनों में एक साथ वैठकर लंबी चर्चा नहीं हो पा रही थी लक्ष्मी पूजन को एक साथ किये हुए वर्षों बीत गए फुलझड़ियों का आनन्द सपरिवार अब नहीं,सबके सब हड़बड़ी में गले मिलते हुए रश्म अदायगी करते हुए वापिस अपने अपने निवास पर लौटने की जल्दी, कारण! उस घर मे ताला पड़ा है कोई संरक्षक तो है नहीं जिसके सहारे निश्चिंत हो जाते अपनी आजादी को गुलामी की तरफ ले जाने वाली दास्तां खुद लिख लिए अब ये क्रम बन गया था।
सोचिये हम कितने अमीर बने सुख सम्पदा से परिपूर्ण बने जबाव स्वयं ही देना होगा इसके निर्माता पठकथा लेखक और अभिनेता भी आप ही हैं मित्र!आपने जो फसल उगाई है अब उसे समेटने का जिम्मा भी तुम्हारा ही है मित्र,सोचिए क्या हम अब रिश्तों से अति दरिद्र नहीं हो गए हैं क्या ?
कहीं अधिक निर्बल,अधीर,संकुचित,और बहुत कुछ!
आज के परिवेश की रंगीन भौतिक सुखों की अंतहीन दौड़ में यदाकदा परिवार एक साथ एक आंगन में भाई भावी,देवर देवरानी,ननद,सासु ससुर की छत्रछाया में वैठकर बतियाते दिख जाते हैं वह दृश्य मन को अपार अवर्णीय शीतलता प्रदान कर जाता है,साथ ही हमें भी अपना संयुक्त परिवार याद आ जाता है,आंगन में बतियाना,कहानी सुनना सुनाना,छत पर खुले में सोना बहुत ही सुनहरे दिन थे संयुक्त भोज की परंपरा, घर में बहुओं बेटियों के कदम की मधुर ध्वनि मन को हर्ष से विभोर कर देती,
आधुनिक दौर में भी कुछ परिवार इसे जीवंत रखने का भरसक प्रयास कर रहे हैं, मैं भी सदैव संयुक्त परिवार का समर्थन करता रहा हूँ,और कर रहा हूँ लेकिन आज के दौर में ये प्रयोग असफल सा होता जा रहा है जाने क्यों? कोई किसी की सुनने को राजी ही नहीं सब अपनी अपनी अलग दुनिया में खोए हुए एकल सुख की कामना से ओतप्रोत,ये बनते समीकरण नितांत चिंतनीय है अभी भी वक्त है संयुक्त परिवार में आने का उसे पुनः निर्मित,सृजित करने का,सपत्नीक एकांतवास सिर्फ यौवनसुख को अधिक परिष्कृत करने में सहभागी हो सकता है वह भी एक निश्चित समय तक! उसके बाद पत्नी जी को भी परिवार की याद तो अवश्य आएगी ही ननद भी और देवरानी जिठानी भी!
संयुक्त परिवार में एकत्व दायित्व,सुरक्षा,संरक्षण,सहयोग,सानिध्य,प्रेम और जाने क्या क्या सुखानुभूतियों का आनन्दमयी संसार, एकता,एकत्व,संयुक्त परिवार,सहभोज की पद्दति हमारी जड़ों में रगों में जब तक असीबसी रही तब तक हम सुरक्षित,स्वतन्त्र,मानसिकआनन्द,सुकून,सौहार्दपूर्ण वातावरण से दीप्त बने रहे किन्तु जैसे ही हम निजजीवन,निजस्वार्थ,निज आनन्द की तरफ बड़े अपनी संकुचित सोच की तरफ एकरूप हुए वैसे ही हमने सिर्फ अपने लिए जीना शुरू कर दिया,और फिर अपना अलग निवास,वाहन,भौतिक सुखों के संसाधन जोड़े मात्र इस सोच के साथ कि संयुक्त परिवार में हम अपने लिये नहीं जी पाते अब भौतिक जीवन का आनन्द ,एकान्तानन्द,भरपूर यौवन का आनन्द प्राप्त करेंगे शायद ऐसा सोचकर संयुक्त परिवार से विरत हो गए,समयानुसार आंगन में किलकारियां गूँजी और सुंदर सुकोमल बालक बालिका आंगन में आ गए सुख की सीमा ना रही लेकिन यही सुख समस्या की एक नई इबारत लिखता दिखा अब बच्चों के पास न दादा न दादी न ताया न ताई रिश्तों की उधड़ती तुरपन बगल बाले दादू,दादी, चाचा बनाये गए लेकिन अपने वाले कहीं बहुत दूर अर्थात उनको बुलाने की सामर्थ्य नहीं या यूं कहें जाने की सामर्थ्य नहीं, बच्चे असुरक्षित से रहने लगे क्यों उनकी देखरेख संरक्षण करने हेतु ना चाचा,चाची,ताऊ, ताई और दादा दादी अब ऑफिस ड्यूटी जाएं कैसे? भारी असमंजस की स्थिति क्या करें ड्यूटी जाएं या इन नौनिहालों की देख रेख करें सपत्नीक निर्णय हुआ किसी आया को वैतनिक रखते हैं अगर हम में से एक भी घर रहा तो किस्तों का बोझ उठाना दूभर हो जाएगा, आया का ग्रह प्रवेश बच्चों को रास ना आया बच्चे सहज ना हो सके ये भारी गम्भीर समस्या थी क्या करें क्या ना करें पत्नी जी गुस्से में बोली चलो पुराने घर चलते हैं वहीं कुछ दिन रहेंगे इतना सुनते ही पतीजी बोले महोदया आपकी ही जिद थी चलो अलग घर बनाते हैं सानन्द रहेगें अब झेलो ये आनन्द किसी पड़ोसी के ऊपर बच्चे छोड़ना कितना उचित होगा वर्तमान परिवेश में कह नहीं सकता! चलो बाबूजी के घर चलते हैं अब वही मार्ग दिखाएंगे,
इसी बीच जयंत को वह सब याद आने लगा जब वह परिवार के साथ रहता था ना कोई फिक्र थी ना चिंता,ना जल्दी जागना ना कोई विशेष भार सब सुकुन् से चल रहा था,कभी कभी अपने हिस्से की जिम्मेदारी भी पिता,भाई के ऊपर डाल देते और अपुन बिंदास रहते लेकिन ये क्या सुकून की जगह भार भारी हो गया,रीता भी होठ चबाती हुई सकुचाती हुई बोली जयंत सच कहूँ हां रीता बोलो जयंत ने कहा-सच में अब मुझे भी देवरानी,जिठानी,सासू माँ और उस नकचढ़ी ननद और वेहद हँसमुख लेकिन नाक पर गुस्सा लिए रहने वाले देवर की याद आने लगी है साथ साथ गपशप करने का मन होने लगा है बहुत दिन बीत गए आंगन में बैठकर गपशप किये बगैर,बच्चे भी चाचा चाची,ताया ताऊ,के बारे में पूछने लगे हैं क्यों ना हम अपने घर चलें फिर से, जयंत ने कहा यहाँ आने का निर्णय भी तुम्हारा था रीता मेम और जाने का निर्णय भी, मैं तो बस चलता रहा हूँ विवाह के सात बंधनों के अकथ्य दायित्व के मध्य आपको जिसमें सुख आनन्द लगे वह करने को सज्ज हूँ भैया भावी बाबूजी जी माँ को हम अभी झटके मना लेगें मुझे भरोसा है उनके प्यार पर नेह पर,जयंत ने तत्काल में टिकट आरक्षित करायी और शाम की ट्रेन से वह अपने पुराने घर को चल दिये पुनः उस असीम आनन्द को प्राप्त करने हेतु।
विचार कीजिये जब हम संयुक्त परिवार में थे तब ज्यादा आनन्द सुरक्षा अनुभव करते थे या अब!उत्तर भी आप के पास ही है विचार करें बच्चों को रिश्तों से अलग करने का दुस्साहस कहीं भारी ना पड़ जाए विचार करें मंथन करें तदुपरांत निर्णय आपकी दिशा और दशा तय करेगा।।
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शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
३०.०४.२०२२ ०१.४२ अपराह्न