।।नकबजनी।।
विदक सिंह पहाड़िया दिलेर फुर्तीला शातिर आदमी था गजब की फुर्ती से भरपूर एव कुशल धावक सा गतिशील, लक्ष्य पर सटीक एव पैनीं नजर,उसकी भुजाएं सदैव फड़कती रहती प्राचीरों की हनक तोड़ने हेतु ये उसका शौक था या यूँ कहें उसका स्वरोजगार (पेशा) या आत्मनिर्भरता।
उसका एक ही काम था दिन में भरपूर निंद्रा और रात्रि में घरों में नकबजनी(सेंधमारी) वह रात्रि के स्याह घनघोर सन्नाटे की प्रतीक्षा बड़ी बेसब्री से करता और अवसर मिलते ही घरों में सेंध लगा देता एव माल साफ कर आता इसमें अत्यधिक जोखिम होने के बाद भी वह इसे छोड़ना नहीं चाहता था अब वह खतरों का खिलाड़ी बन चुका था।
वह रात भर जागता गतिशील रहता नकब लगाने की फिराक में,दिन में चादर तानकर विश्राम करता लेकिन उसका शातिर दिमाग सदैव सक्रिय रहता घरों की सूची तैयार करने में एव रात होने की प्रतीक्षा करता कब अंधेरा पाख आए और कार्य निर्वाध गति से चल सके शायद वह बहुत मेहनत कश था। उसके चर्चे हर जुबान पर थे उसकी नजरों से शायद ही किसी दीवार की मोटाई बच सकी हो वह दीवार की मोटाई का सटीक अनुमान लगा लेता था वह उसे भेदने में लगने वाले वक्त का आंकलन भी चुटकियों में लगा लेने में सिद्ध था।उसका यह पेशा जोखिम की अनगिनत सीढ़ियों से होकर जाता उसके अस्त्र शस्त्र उसके दाएं बाएं हाथ की तरह सदा मित्रवत रहते सदा सजग सचेत!
सच कहूँ गजब का जोखिम उठाने में महारथी था विदक सिंह! उसकी नासिका दीवार के इस पार से उस पार रखी दौलत की गंध सूंघने में प्रवीण थी कुशल थी।अगहन मास का माह कड़कड़ाती ठंड अपनी भरपूर तरूणाई पर थी ठिठुरन के मारे लोग लुगाई रजाइयों में साँझ होते ही घुस जाते अंधेरा पाख स्याह काली रात के आगोश में समाता जा रहा था। अंधेरा ऐसा के चलते को मार्ग भी ना दिखे विदक सिंह के लिए ये सबसे उपयुक्त वक्त था सर्वानुकूल कालखंड,हवा शूल सी वदन को पार कर जा रही ठिठुरन पूरी जवानी में मदहोश प्रतीत होती थी विदक सिंह को भान था इस भयंकर सर्द रात में मजाल ही नहीं कोई व्यक्ति रजाई काआश्रय छोड़ दे,वह शातिर सिद्धहस्त चोर था,अगहन पूस माह में बिस्तर को छोड़ना हिमालय पर चढ़ने से कम नहीं होता।
अपने लिए सर्वानुकूल कालखंड जानकर विदक सिंह नकब लगाने की जुगत में चल पड़ा रात्रि के दूसरे पहर का मध्यकाल समाप्ति की ओर था।इस वक्त गांव के लोग घनघोर निंद्रा में चले जाते हैं,अचानक उसकी दृष्टि एक हवेलीनुमा मकान पर पड़ी उसकी नजरें सिकुड़ गयीं और वह ठिठक गया आहट लेने हेतु.मस्तिष्क से आदेश मिला और भुजाओं ने आश्वासन दिया चलो इसी प्राचीर को भेंदते हैं नकब लगाते हैं। उसने अपने हुनर का परिचय देते हुए कुछ ही समय में दीवार भेद दी अब सबसे बड़ा संकट उसके समक्ष मुंह फाड़े खड़ा था कैसे पता करें! किस स्थान में किस के अंदर माल है जेबरात रखा है! वह ये जानने के पशोपेश में कुछ देर विचारमग्न रहा तभी सामने दालान में बिछी चारपाई पर हरकत हुई शायद कोई लघुशंका हेतु जागा हो उनींदी सी अवस्था में घर के मुखिया कृपाल सिंह नरसिंह उठे,उन्होंने अपने सिरहाने रखी लठिया को उठाया और चल पड़े शौचालय की ओर जब विदक सिंह ने उन्हें अपनी ओर आते देखा वह तत्काल शरीर को निढाल करता हुआ दीवार के बगल से लेट गया मूत्र की तीक्ष्ण धार विदक सिंह के चेहरे को स्वच्छ करती हुई मुख में समाहित होते हुए शांत हो गयी विदक सिंह असहज! लेकिन निढाल रहा, कृपाल सिंह जी अपना कार्य पूर्ण करके विस्तर पर आ गए।
कितना सहनशील कितना स्थिर कितना संयमी था विदक सिंह,उसने जैसे ही घड़ी पर नजर डाली वक्त रात्रि एक का हो रहा था। उसने चैन की सांस ली चलो अभी वक्त है बुड्ढा सो जाए तब हाथ साफ करते हैं।अवसर मिलते ही उसकी शातिर नजरों ने अपना काम कर दिया माल पर हाथ साफ कर लिया गया। माल तत्काल खेस (चादरा)में बांधकर वह छत के पिछले हिस्से से कूदने की फिराक में ही था।
सहसा एक आहट हुई विदक सिंह विदक गया सामने कृपाल सिंह खड़े थे उन्हें समझते देर ना लगी ये चोर है उन्होंने आव ना देखा ताव दे मारी लाठी विदक सिंह के घुटनों में लाठी का वार खाली गया। इसी का फायदा उठाते हुए चोर घूरे पर कूद कर खेतों की ओर भागने लगा शोरगुल मच गया जगार हो गयी शायद सुबह हो गयी थी। चोर के पीछे कृपाल सिंह और उनके पीछे गाँव के लोग लुगाई सभी के हाथों में लाठी डंडे आदि आदि भागते भागते विदक सिंह हांफने लगा उसने अपनी घड़ी देखी वह अभी भी एक ही बजा रही थी। उसे समझते देर ना लगी इस घड़ी के वक्त ने मेरा बुरा वक्त ला दिया,वास्तव में वह घड़ी बंद हो गयी थी आज उसका समय प्रबंधन उसके लिए काल बनता दिख रहा था।
पीछे से गॉव के लोग लुगाई चिल्ला रहे थे पकड़ों पकड़ो ! भागने ना पाए! जैसे ही उसकी नजर बंद गली की तरफ पड़ीं अरे ना इधर नहीं इधर तो बचना नामुमकिन है! उसके खुराफाती दिमाग ने झट से दूसरा मार्ग दिखा दिया वह बेतहाशा भाग रहा था पीली फटने वाली थी भोर होने को था अचानक सामने नाला आ गया झपाक से विदक सिंह उसमें गिर गया टांगों ने साथ छोड़ दिया बाजुएं थक गई पैर गोंत"कीचड़" में फंस गए कनकू प्रधान ने अपना कम्बल चोर के ऊपर डाल दिया ताकि वह दृष्टिबाधित हो जाए भाग ना सके।वह हतप्रभ सा कीचड़ से भरे नाले में खड़ा रह गया फिर क्या था लाठियों की बरसात की रात हो गयी सुताई बहुत भारी होती रही विदक अब बचने की गुहार लगा रहा था। भैया छोड़ दो भैया छोड़ दो अब चोरी कबहूँ नांय करेंगे लाठियों डंडों थप्पड़ों के असहय प्रहार के पाशों में फंसा विदक सिंह भागने की जुगत में था तभी कोतवाल जी रात्रि ड्यूटी से लौटते हुए वहाँ आ धमके।
उन्होंने चोर को अपनी गिरफ्त में ले लिया और बोले हम इसे थाने ले जा रहे हैं वहीं खातिरदारी पूछताछ करेगें और हाँ आप लोग घर जाइये।सभी गॉव वाले अपने घरों को वापिस लौट गए और विदक सिंह कोतवाल के साथ कोतवाली मेहमान
नवाजी के लिए लाए गए खूब खुशामद हुई। उसका शरीर पहले ही सुन्न हो गया था गाँव वालों ने कम थोड़ी सूँते थे विदक सिंह,उसके बाद कोतवाली में भी स्वागत की रश्म अदा की गयी। उसने अपने बयान में कहा श्रीमान मैंने बहुत चोरियां की नकब लगाए राहजनी की लेकिन इतनी दुर्गति धुनाई कभी नहीं हुई कोतवाल ने उसे जेल भेजने से पूर्व पूछा इसका जिम्मेदार कौन है बताइए? विदक सिंह बोला- समय,अरे ज्यादा दार्शनिक मत बनो- विदक सिंह,कोतवाल बोले, सच बता-आखिरी बार पूछता हूँ विदक सिंह बोला- हुजूर सच में इसका सारा दोष मेरी हाथ घड़ी को जाता है देखिए ये अभी भी एक बजा रही है इसी के झांसे में आगया था, कि वक्त अभी तो बहुत है मेंरे पास,सुबह होने से पहले हाथ साफ कर सकता हूँ लेकिन ये कलमुँही रुक गई और आ गए गिरफ्त में।
कोतवाल साहब ठहाका मारकर हंस पड़े अरे वाह गजब का समय प्रबन्धन! कागजी कार्यवाही के बाद विदक सिंह को जेल भेज दिया गया।
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
२१.०५.२०२२ ०१.४८अपराह्न