गजल ।।सदा।।


।। सदा ।।


सदा उसकी उसे आती नहीं।

सिसकती माँ नजर आती नहीं।


खुद ही खुदा बनता रहा उम्र भर।

रुखसती के वक्त ताकत पुनःआती नहीं।


रौंदता रहा कदमों तले इंसानियत यूँ हीं।

वक्त गुजरा फिर बादशाहत आती नहीं।


दोस्त गर अपने गिरेबाँ पर नजर दौड़ाते।

दाग कितने हैं सब साफ साफ नज़र आते।


अदाबत का ग़ुबार लिए फिरते रहे।

आंख के सामने रिश्ते सगे मरते रहे।


जिम्मेदारी फ़ख़त इकतरफ़ा नहीं होती।

कश्ती बिना नाविक के पार नहीं होती।


ख़बर उसको भी है तेरी एक एक।

मगर जुर्रत नहीं गले लगाने की।


दिल की"सदा"सदा ठुकराता रहा।

वह अजीज था सिर्फ मुस्कराता रहा।


आपसी नेह में गिराबट हो रही है।

दरकते रिश्तों की आहट हो रही है।


जब लहू ही लहू से खफा हो जाए।

दर्द कितना है कैसे बताया जाए।


सितमग़र कौन था सजा किसे मिली।

ये बात खुलेआम कैसे बताई जाए।


दूरियां रिश्तों में इतनी ना बढ़ाइए।

जब सामने हों तब चेहरा ना छुपाइए।


हवा खिलाफ क्यों है बताओ तो जरा।

अपनी खुराफातें बताओ तो जरा।


इल्म तो है तुम्हें गुस्ताखियों का बखूब।

सामने कहने से गुरेज करते हो।


रोज घुट घुट कर दम तोड़ते रिश्ते।

था इक दौर जब चहकते थे रिश्ते।


शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

२४.०५.२०२२ ०३.०५ अपराह्न




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