कविता【उठाती बोझ सिर पर】

                   

कविता

【उठाती बोझ सिर पर】


जेठ की तपती दुपारी,

तप रही थी भूमि सारी,

बोझ सिर पर लाद कर,

चल रही वह श्रमिक नारी,


बदन कुम्हलाया हुआ सा,

लग रहा था मुख रुआंसा,

श्याम होता जा रहा था रूप गोरा,

कमनीय काया की धनी यौवन बंधा सा,


भीषण ताप का प्रहार सहती,

मिला है ईश्वरीय उपहार कहती,

थी अडिग कर्तव्य पथ पर धैर्यरत,

शांत रहती दर्द सहती सजग रहती,


तन जलाती जेठ की लू बह रही थी,

आग के शोलों सी धरती तप रही थी,

श्रमबिन्दु माथे पर दमकते मोतियों से,

रौंदती वह रश्मियों का दर्प आगे बढ़ रही थी,


वस्त्र थे मैले कुचैले सादगी से थे लपेटे,

भारतीय नारी की गरिमा को समेटे,

थी बहुत वेबश मगर खुद्दार थी वह,

नारियों की सबलता हुंकार थी वह,


थक गई मजदूर नारी साँझ आते,

चल पड़ी अपने भवन वह गुनगुनाते,

भवन प्राचीरें कहें उसकी कहानी,

धीरता गम्भीरता मेहनत की वानी,


उन्नत गगनचुंबी खड़ी अट्टालिकाएं,

कह रहीं उसकी कथाएं वेदनाएं,

अथक मेहनत की वजह से हूँ खड़ी,

तुम श्रेष्ठ तुम धैर्यवान तुम अद्भुत बड़ी,


देखिए सुनिए मनुज इनकी व्यथाएं,

ताप और संताप की अगणित दशाएं,

उठाती बोझ सिर पर पत्थरों का देखिए,

आइए कुछ पास मेरे दृश्य आकर देखिए,


शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

२८.०५.२०२२ ०७.४८ पूर्वाह्न















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