गजल【खुद से पूछिए!】

                          

खुद से पूछिए!

【1】

पत्थरों की बागवानी हो रही है शहर में।

बाग के सुनसान साए से तो जाके पूछिये।


रौंदते यूँ जा रहे हो जिस्म मिट्टी की तरह।

ये तो बस मजबूर है अपने लहू से पूछिए।


गुनाह किसका था सजा किसको मिली।

हवा पानी पेड़ की दरियादिली से पूछिए।


आसमां आग की सौगात क्यों देने को है।

कौन जिम्मेदार है ये बात खुद से पूछिए।

【2】

घट रही रिश्तों की खुश्बू बढ़ रही हैं दूरियां।

जो अकेले घुट रहे हैं ये बात उनसे पूछिये।


भूख क्या है पेट की मालूम है क्या आपको।

जिस्म के बाजार में बिकते बदन से पूछिए।


एक पहलू को दिखाना है नहीं आता मुझे।

कलम की जिंदादिली मासूमियत से पूछिए।


कर रहे बर्बाद पानी आंख को मूंदे हुए।

रेत के घर में फंसे पंछी से जाके पूछिए।

【3】

सामने सजता रहा दरबार लूट खसोट का।

चुप रहे क्यों देखके अपने जिगर से पूछिए।


दूर होता जा रहा पानी जमीं से दोस्तो।

आंख में पानी बचा क्या पूछिए कुछ पूछिए।


बेखौफ होकर बोलती है कलम मेरी दोस्तो।

गली,बस्ती,नगर में बहती हवा से पूछिए।


रुआब में तुम दिख रहे हो आज भी प्रिय दोस्तो। 

जानिए खुद की हकीकत दूसरों से पूछिए।


【【जयहिन्द】】

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

【सर्वाधिकार सुरक्षित】

३०.०५.२०२२ ०६.१९ पूर्वाह्न

















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