गजल
★चेहरा★
(1)
आईने ने मेरा चेहरा दिखा दिया।
दाग थे या नहीं सब कुछ दिखा दिया।
(2)
आईना ही आज मुझसे पूछ बैठा सवाल।
बताइए पहचान अपनी कौन हो ज़नाब।
(3)
मेरी पहचान क्या है जवाब उलझा गया।
आईने की नजर में सब साफ साफ आ गया।
(4)
मैं सकपका कर बोला हूँ इक आदमी।
आईना चिल्ला उठा दिखते नहीं हो आदमी।
(5)
बदलते हो रूप रंग तुम रोज रोज नए नए।
तुम आदमी तो थे पर आदमी नहीं रहे।
(6)
मुझे लगता रहा दोस्त चेहरा तो मेरा साफ है।
आईना बोला जनाब फरेबी लिहाफ है।
(7)
छुप छुप के छुपाता रहा गुनाह अपने।
आईने में अक्स देखा तो गुनाह चिल्ला उठा।
(8)
दाग तो दाग ठहरे धुल ना सकेगें दोस्तो।
गुनाहों की काली लकीरें यूँ नहीं मिट पाएगीं।
(9)
बढ़ रही हैं दूरियां क्यों मिट रही इंसानियत।
आदमी को आदमी दिखता नहीं है गौर कर।
(10)
दाग अपने ही छुपाते रहोगे दोस्त गर।
सफर सिफर जिंदगी जाएगी गुजर।
(11)
ऐ जिंदगी तू भी गजब की अदाकार है।
कभी रिस्क कभी इश्क कभी इंतजार है।
(12)
आईना खामोश है गुस्ताखियों को देख।
सामने आ आदमी आ चेहरा अपना देख।
💐💐💐
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
०३.०५.२०२२ ०४.३६ अपराह्न