।।जमीर।।
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तलवों की "अगर" मालिश मैं कर आता।
फ़क़त दौलत ही नहीं मुक़ाम पा जाता।
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दरबार में झुककर,सलाम करना नहीं आया।
यही खुद्दारी का लहजा,उन्हें रास नहीं आया।
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झुकते देखे हैं मैंने,उनके सामने भी लोग।
जिन्हें इंसान कहने पर,कलम नाराज है।
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जिनकी फितरत में,रगों में गुलामी हो।
कौन क्या करे "जब" ना आंखों में पानी हो।
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सिर्फ दौलत कमा लेना ही अमीरी नहीं।
जमीर जिंदा है असली अमीर है वही।
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हसीन दिन गुजरे गुजरीं इश्क की रातें।
फखत रह जाएंगी तेरी मेरी कहीं हुई बातें।
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उंगली उठाते रहे उनकी ओर एक दोस्तो।
तीन अपनी ओर "क्यों" कुछ समझ आया।
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ये हाथ उसके सजदे में हीं उठें ठीक नहीं।
कभी बेटियों की हिफाजत में इस्तेमाल करो।
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दरिंदे बेखौफ क्यों होते जा रहे हैं हर जगह।
भेड़ियों की जीभ खींचने पर विचार करो।
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कौनसी महफूज जगह है बताइए जनाब।
जब रक्षक ही आबरू लूटने में पीछे नहीं।
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जवाब चाहिए कब तक जांच जांच होगी।
दरिन्दों की हस्ती कब राख राख होगी।
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जिसके हाथों में हिफाजत की कमान है।
वहीं खतरा बढ़ने लगे आफत में जान है।
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सजा सख्त हो ख़ता जब मुलाजिम करे।
जम्हूरियत की आबरू इनके ही हाथ है।
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आबाज बुलंद करें नाइंसाफियों के वास्ते।
चलो चलें एक हो इंसानियत के रास्ते।
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सवाल सिर्फ उधर ही नहीं इधर भी बड़ा है।
उजाले के सामने अंधेरा बेखौफ खड़ा है।
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मजाल को परख कुछ खुद को पहचान।
गलत का विरोध कर तब सांस चलना जान।
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शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
०६.०५.२०२२ ०७.५२ पूर्वाह्न