गजल ।।जमीर।।

                             

।।जमीर।।

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तलवों की "अगर" मालिश मैं कर आता।

फ़क़त दौलत ही नहीं मुक़ाम पा जाता।

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दरबार में झुककर,सलाम करना नहीं आया।

यही खुद्दारी का लहजा,उन्हें रास नहीं आया।

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झुकते देखे हैं मैंने,उनके सामने भी लोग।

जिन्हें इंसान कहने पर,कलम नाराज है।

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जिनकी फितरत में,रगों में गुलामी हो।

कौन क्या करे "जब" ना आंखों में पानी हो।

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सिर्फ दौलत कमा लेना ही अमीरी नहीं।

जमीर जिंदा है असली अमीर है वही।

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हसीन दिन गुजरे गुजरीं इश्क की रातें।

फखत रह जाएंगी तेरी मेरी कहीं हुई बातें।

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उंगली उठाते रहे उनकी ओर एक दोस्तो।

 तीन अपनी ओर "क्यों" कुछ समझ आया।

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ये हाथ उसके सजदे में हीं उठें ठीक नहीं।

कभी बेटियों की हिफाजत में इस्तेमाल करो।

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दरिंदे बेखौफ क्यों होते जा रहे हैं हर जगह।

भेड़ियों की जीभ खींचने पर विचार करो।

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 कौनसी महफूज जगह है बताइए जनाब।

जब रक्षक ही आबरू लूटने में पीछे नहीं।


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जवाब चाहिए कब तक जांच जांच होगी।

दरिन्दों की हस्ती कब राख राख होगी।

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जिसके हाथों में हिफाजत की कमान है।

वहीं खतरा बढ़ने लगे आफत में जान है।

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सजा सख्त हो ख़ता जब मुलाजिम करे।

जम्हूरियत की आबरू इनके ही हाथ है।

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आबाज बुलंद करें नाइंसाफियों के वास्ते।

 चलो चलें एक हो इंसानियत के रास्ते।

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सवाल सिर्फ उधर ही नहीं इधर भी बड़ा है।

उजाले के सामने अंधेरा बेखौफ खड़ा है।

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मजाल को परख कुछ खुद को पहचान।

गलत का विरोध कर तब सांस चलना जान।

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शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

०६.०५.२०२२ ०७.५२ पूर्वाह्न

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