गजल【सच सच बोलते हैं】

 

गजल

सच सच बोलते हैं

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अरे वाह! हक उसका इसका सबका पचा गया।

आदमी बड़ा खुदगर्ज़ था,आदमी को खा गया।


क्यों बेवजह हर ओर,मकड़ी सा जाल बुन बैठा।

तू खुदा बनने चला था,मगर बदहाल बन बैठा।

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दाग चेहरे पर लगे हैं,आपके मेरे अज़ीज।

आईने में देखिए गर,काम से फुर्सत मिले।


सियासी लोग अव्वल,दर्जे का बोलते हैं।

पता करो ये किस वक्त,सच सच बोलते हैं।

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ऐ दोस्त अपना अक्स, शिद्दत से देखिए।

पता तो कीजिए,दाग कितने लग चुके हैं।


खुराफातें कैसे छुपा लोगे,अपनी खुद से।

पता है सब तुम्हें,तुम गुनहगार कितने हो।

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देखते हो आसमाँ की ओर,क्यों नजरें उठा।

ज़मीन से वादाखिलाफी,बदल ना दे हैसियत।


तेरे चेहरे की लकीरें,कह रहीं हैं बहुत कुछ।

तू छुपाना चाहता है,मगर वह छुपती नहीं।

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छुपाते हो बड़े ही शौक से,अपनी हरकतें,

हवा ठहरी बेलगाम,कह गयी सब हरकतें, 


जिस्म मिट्टी है पता है,हम सभी को दोस्तो।

कौन हैं वे लोग,जो मिट्टी सा इसको रौंदते।

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जमीन पर पैर रखोगे,तब ठीक से चल पाओगे।

इससे मुख़ालिफ़त की,चोट भारी खाओगे।


तारीफ क्या सुन ली उसने,अपनी दोस्तो।

बेशऊर था वह,दर्जे में अव्वल मान बैठा।

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ईमान की कहानी,जगजाहिर हो चली है।

लिबास दागदार है,बात आम हो चली है।


सिफर से सफर,होता है शुरू जिंदगी का।

जानते हैं लोग सब,पर मानते बस हैं नही।

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अगर वक्त मिले,लेन और देन से जनाब।

एकबार अपनी फर्म का,तलपट बनाइये।


हवा रौब,हनक बहुत दिखाती,चल रही है देखिए।

उसे फर्क नहीं पड़ता,आशियाना किसका भी जले।

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वह भूख दौलत की शोहरत की, बढ़ाता चला गया।

सामने रोता रहा दो कौर को,वह मुस्कराता

चला गया।


हालात देखिए कैसे बदलते हैं वक्त के साथ  मौसम के।

ग़रूर में है आज गर्मी,कल हैसियत बदतर न हो।

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शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

१९.०६.२०२२ ०३.४५ अपराह्न










 



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