कविता【दो जून की रोटी】

      

【कविता】

【दो जून की रोटी】


दो जून की रोटी का चक्कर जानते हो,

भूख की कीमत "सदा" पहचानते हो,

किस तरह दो जून की रोटी मिली है,

धूप में झुलसा बदन "क्यों" जानते हो।


झेलती है डाँट झुनियां बोझ सिर लादे हुए,

हाथ में छाले "बिवाई" विवश हो पाले हुए,

रोटियों के वास्ते बिकती मिली हैं बोटियाँ,

तब मिली हैं सुनो प्यारे जून की दो रोटियाँ।


आदमी खाता थपेड़े रोटियों के वास्ते,

भूख तो है बेरहम कांटे से पूरित रास्ते,

रोज घुटता जा रहा है आदमी है देखिए,

रोटियां है बेशकीमत देखिए तो देखिए।

💐💐💐

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

०२जून२०२२ ११.४९पूर्वाह्न

(सर्वाधिकार सुरक्षित)











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