व्यंग्य ।।बड़े साहब का चमचा!।।

 

व्यंग्य

बड़े साहब का चमचा !


अरे!भैया चाटुकार जी,

किस ओर सरपट जा रहे हो।

उन्होंने चौंकते हुए गर्दन घुमाई,

देखते ही बोले क्या पूछा आपने भाई।

मैनें सहज होते हुए फिर कहा,

किधर प्रस्थान कर रहे हैं आप श्रीमान।

बोले चाटुकार जी संयत होते हुए,

कहीं नहीं बस थोड़ा अपने बड़े,

साहब के बंगले पर जा रहा हूँ।


अच्छा टीका टीक दोपहरी में हीं!

ऐसा क्या काम पड़ गया साहब से,

वैसे तो आप सरकारी नौकर हो,

बड़े साहब के नौकर तो हो नहीं?

अरे भैया बड़े साहब ही सरकार हैं,

मैंने पूछा कैसे,तो सुनिए ऐसे।

सरकार को यही तो फाइल थमाते हैं,

मुख्यमंत्रीजी वही मंच से हमें सुनाते हैं।

अब बताओ सरकार कौन हुआ ये या वे?


मुझे अचंभा हुआ चमचे का ज्ञान देखकर,

सच ही कह रहा है,सरकार किसे मानें?

मैनें कहा अरे!छोड़िए आप ये बताइये,

ड्यूटी टाइम में बिलंब से क्यों जा रहे हो,

अरे!छोड़ो इससे क्या होगा पूछेगा कौन?

भैया हाजिरी प्रमोशन हुक्का पानी,

सब साहब की कृपा से हो जाता है।

मुझे कौन रोकेगा,काम निकलवाने,

पूरा विभाग इधर ही तो आता है।


और सुनो मेरे ऊपर साहब का ही नहीं,

मेरी मेम साहब का भी पूरा हाथ है।

समझ गए पहुंच कितनी है मेरी,

वैसे तो हम सेवक हैं बड़े साहब के,

और बड़े साहब सेवक हैं मेमसाहब के।

बिल्कुल चरण की पादुकाओं सदृश,

जब चाहो उतारो जब चाहो पहनो!

अच्छा ऐसा है,मैनें सधी जुबान से कहा।

मैनें उन्हें टटोला कुछ इमोशनल किया।


मैं चाटूकारिता के नफा नुकसान,

महाशय की जुबानी जानना चाहता था।

बस अब ज्यादा ना पूछो भैया जी,

अब ज्यादा पोल मत खुलवाओ। 

मैंने उनकी गोपनीय नस दबा दी,

ये बताइये आपका इतना कम सेवाकाल,

लेकिन फिर भी तुम कैसे हो गए मालामाल,

ये कैसे हुआ पर्दा हटाइये कुछ बताइए।

अरे छोड़िए जलधारा उस ओर मत मोड़िए,

मैने ज्यादा कहा तब वे बोलने को राजी हुए


सब बड़े साहब की चाटुकारिता से हुआ है।

शाम को फल सब्जी सब मेरे जिम्मे है,

और हां लिफाफे खोलने का पुण्यकर्म भी!

सफेदपोश,ठेकेदार,बिल्डर,शिक्षामाफिया

जो भी प्रेमपूरित लिफाफे भेंट लाते हैं।

साहब ईमानदार हैं वे हाथ नहीं लगाते हैं,

अपनी छड़ी से मेरी ओर सरकाते जाते हैं।

दिन भर में भी कुछ खुला प्रसाद चढ़ता है,

इसी से साहब का अतिरिक्त खर्च चलता है।


साहब दयावान ठहरे उनकी कृपा से,

लिफाफों में से कुछ जूठन मिल जाती है।

बस साहब की सेवा ही मेरा परम् धर्म है,

यही नौकरी है,मंदिर है,यही वैतरणी है,

वाह!बहुत उम्दा चमचा हो तो आप जैसा,

मैनें स्वागत जैसे लहजे में कहा!

चाटुकार महोदय!आखिरी लफ्ज़ बोले।

मैं सिर झुकाकर सेवा करता हूँ श्रीमान,

साहब का चमचा गंतव्य को बढ़ गया,

मैं बोला बहुत खूब!बहुत खूब!बहुत खूब!


शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

२५.०६.२०२२ ०५.१०अपराह्न





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