कविता ।।दग़ा खा गया बाप!।।

 
कविता

दग़ा खा गया बाप!


सत्ता की खातिर घटे ऐतबार जज़्बात,

ना कोई सच्चा सगा नहीं दाहिना हाथ।

दग़ा मिले कब आपको मिल जाए कब मात,

बिल्ली बंदर सा हुआ राजनीति का साथ।


चाल शकुनियों सी चलें धोखा दें मुस्कात,

जिस थाली से पल चले करें उसी में घात।

करें उसी में घात बात के धनी ना मिलते,

नजर उठा कर देखिए! कुर्सी के हालात।


रिश्ते नाते हैं नहीं अलग नस्ल के जीव,

जिसके घर पलते रहे वहीं कुरेदे नींव।

वहीं कुरेदे नींव चरित्र का नहीं भरोसा,

मिला करारा वार जिसे निष्ठा से पोसा।


शकुनि की चालें विकट मिटे सकल संताप,

राजनीति में कहाँ बचे दोस्त पुत्र अरु बाप।

धोखा छल की नींव पर खड़ा किये साम्राज्य,

देखो तो कुछ मित्रवर नयन खोलकर आज।


चाह बस कुर्सी रही मिटे सकल मर्याद,

मिट्टी से सोना किये बिसर गए संवाद।

दाग़ वदन पर बहुत थे देख ना पाए आप,

राजनीति के खेल में दगा खा गया बाप।


(सर्वाधिकार सुरक्षित)

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

३०.०६.२०२२ १२.५५ अपराह्न



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