।।चिट्ठियां।।
हां बिल्कुल,वही चिट्ठियां,
जो चुपचाप,सब साफ साफ।
कह देती थीं मन के उदगार,
बिन बोले,स्वतः ही अपने आप।
अद्भुत था चिट्ठियों का संसार,
प्यार,डाँट,हालात और अपनापन।
सच कह जाती थीं दिल की बात,
जरूरतें,परेशानी और अल्हड़पन।
कुछ अनछुए कुछ छुए पल,
स्नेह का पिटारा खोलना।
आदर,भावना,भावुकता,उत्सुकता,
जज़्बात ह्रदय की बात बोलना।
चिट्ठी बांचते बांचते फफक,
पड़ती थी माँ।
जब बुखार की छुटपुट खबर,
सुनती थी माँ।
आदर,संस्कार,भाव,प्रेम,गुस्सा सब कुछ,
सिखाती थी हमारे दौर की चिट्ठियां।
वे खुद नहीं बोलीं कभी मुंह खोलकर,
फिर भी सबकुछ बोल जाती थीं चिट्ठियां।
हर एक लम्हात की बात,
साफगोई से सुनाती चिट्ठियां।
बड़े ही सलीके से तरीके से,
बोल जाती थीं बेजुबान चिट्ठियां।
प्रारम्भ में कुशल क्षेम,
मध्य खण्ड में जज़्बात,हालात।
और समापन खण्ड में,
फिक्र मत करना हम हैं तुम्हारे साथ।
स्नेह की,भावनाओं की,
अमिट अमित थाती थी चिट्ठियां।
माँ,भार्या,प्रेयसी और भी,
वर्षों वर्ष संजोए रखतीं थीं चिट्ठियां।
किस्म किस्म की चिट्ठियां,
लिफाफा,अंतर्देशीय,पोस्टकार्ड,बैरंग।
लेकिन जो नाम की बैरंग थी,
वही विशेष थी,समेटे थी रंग ही रंग।
बैरंग खत विशेष परिस्थितियों में,
लिखती थीं बहिन,भार्या,माँ।
जवाब त्वरित मिलेगा पता था,
इस विशेष गुण को जानती थी माँ।
प्यार,डाँट,सौगात कहतीं दिल की बात,
निष्कपट निर्लिप्त भाव से चिट्ठियां।
आपसी भावनात्मक जुड़ाव की बरसात,
सच्चे अर्थों में अमूल्य थाती थीं चिट्ठियां।
विशेष,अद्धितीय,अद्भुत थी चिट्ठियां,
रिश्तों की अद्भुत मिशाल थी चिट्ठियां।
हमेशा नई सी अपनी सी प्रतीत होती थीं,
छप्पर के कोने में छुपाकर रक्खी चिट्ठियां।
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
०२.०७.२०२२ ०८.१८ पूर्वाह्न