सुख़न .तुम भी सच बोलो!


सुख़न

तुम भी सच बोलो !


तुम भी सच बोलो,नज़रों से नज़रें मिला कर,

कभी फोन पर,कभी दफ्तर में,कभी पास जाकर।


चलो किताबों की बात मानकर,सच बोलकर देखें,

किताबें सच बोलती हैं? तुरपन खोलकर देखें।


सच कहता हूँ इसलिए,अब वे मेरे पास नहीं आते,

फिर सच ना कह दूं,इसलिए आसपास नहीं आते।


वे सही नहीं हैं,फिर भी सही बोलूँ हमें नही आता,

मैं अभी जिंदा हूँ शायद,ये हुनर हमें नहीं आता।


चलो तुम ही बताओ,क्या मार डालूं सच में सच को,

किताब फाड़ दूँ जला दूँ,जो कहती है सच बोलो। 


लिखा जरूर है सच बोलो,पर बोलना मत,

रिश्ते दरक जाएंगे, गर आपने सच बोला।


झूठ का साँचा बड़े क़रीने से सजा रक्खा है,

इस घर उस घर,घर घर में छिपा रक्खा है।


शिकायत क्यों और, किससे करोगे तुम,

ये जरूरी तो नहीं,वह जुबान समझ पाए।


परिंदों की जुबान होती है,जानते सब हैं,

समझता कौन है,जुबान बेजुबानों की।


शिकस्त नई बात नहीं है,सुनिए जनाब,

मगर मिली किससे,मायने यही रखती है।


आदमी बने रहना,कोई हल्की बात नहीं,

उमर गुजर जाती है,आदमी सा बनने में। 


दौलत शोहरत होनी चाहिए,गलत क्या है,

मगर मिज़ाज आदमी सा रहे,तब बात बने।


धोखा मिला है,तोहफा समझ के लीजिए,

यही वक़्त है कौन क्या है,जान लीजिए।


आखिरी सांस तक,सच कहो तब जानें,

गलत को गलत,खुलेआम कहो तब जानें।


सही को सही गलत को गलत बोलते नहीं,

बड़े कमजोर हो,सामने कुछ बोलते नहीं।


शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

०३.०७.२०२२ १२.१५ पूर्वाह्न







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