शायरी-चुपके चुपके!

 

शायरी

चुपके चुपके!


ज़िंदगी खुली किताब सी,रहे तो ठीक है।

नफ़रत या दोस्ती,खुलेआम रहे तो ठीक है।


चुपके चुपके चुगलियां,क्यूँ करते हो अज़ीज़।

कभी कभी नज़र मिलाके,करो तब ठीक है।


शिकायत,हिक़ारत,अदावत को छोड़ दो।

सुनो अज़ीज़,तुम ग़लत आदत को छोड़ दो।


आखिरी सांस तक,मुकाबला डट कर करो।

वक़्त ख़िलाफ़ हो,तब हिम्मत ना छोड़ दो।


खंजर पर धार रखते हो,छुपाकर मेरे दोस्त।

ग़र इस धार को,सरेआम रखो तब ठीक है।


जिंदगी सफ़र है,खुशियों की और गमों की।

लुत्फ़ लो खुलकर,तब ठीक है सब ठीक है।


जुल्म के खौफ़ से,बस्तियाँ नहीं छोड़ा करते।

शेरदिल लहरों को देख,कश्तियाँ नहीं छोड़ा करते।


आखिरी सांस तक,लड़ते हैं जंग जंगबाज़।

दुश्मन की फौज देख,मैदां नहीं छोड़ा करते।


जमीन पर पैर रखो,नज़र आसमाँ पर रखिए।

बहारें लूटिए,इश्क़ का रिस्क का मज़ा चखिए।


वक़्त को वक़्त समझो,नज़र मंजिल पर रखिए।

बरखुरदार ये जवानी है,क़दम जरा धीरे से रखिए।


चिपक कर शिकायतों से,कब तक रहोगे।

छिटक दीजिए इन्हें,गुमसुम कब तक रहोगे।


हवा खिलाफ हो,तब बोलकर देखिए।

एकबार अपनी,शख्सियत तोलकर देखिए।


शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

१५.०७.२०२२ ११.२३ पूर्वाह्न







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