कविता-जीवन की परछाई देखो.

कविता

जीवन की परछाई देखो.


जीवन की परछाई देखो,

आती हुई जम्हाई देखो।

नयन उघाड़ो अपने अपने,

साँसों की तुरपाई देखो।


रूप रंग तरूणाई देखो,

नई उमंगें छाई देखो।

देखो यौवन का जादू आदू,

युवती अरु अँगड़ाई देखो।


प्रेम प्रेमिका चिट्ठी देखो,

मुंह में घुलती मिष्ठी देखो।

देखों बांहों में लेने का स्वप्न सलोना,

दिन में उगते तारे देखो।


इश्क वफ़ा के वादे देखो,

आगे पीछे प्यादे देखो।

देखो कॉलेज की उन्मुक्त तितलियां,

भौरों को मंडराते देखो।


विवाह भार्या नन्दन देखो,

नित नूतन अभिनन्दन देखो।

देखों फँसता मोहपाश में खुद को,

मकड़ी सा यह बंधन देखो।


बचपन जाता आता देखो,

यौवन रस लहराता देखो।

देखो बढ़ती संतति अपनी,

बढ़ता कुनबा नाता देखो।


चमक नयन की जाती देखो,

बगलों की बगुलाई देखो।

देखो स्वप्नों की सच्चाई,

मंद कर्ण ध्वनि आती देखो।


हवा हवाई नाते देखो,

रिश्ते आते जाते देखो।

देखो स्वजनों की नित खींचातानी,

धोखा छल बलखाते देखो।


साठ पार की आहट देखो,

पत्नी जी की चाहत देखो।

देखो अपनी पुत्रबधू का ठसक दिखाना,

जीवन की कड़वाहट देखो।


उम्र खतम फिर सोना देखो,

स्वजनों का कुछ रोना देखो।

देखो यात्रा अपनी जाती प्यारे,

स्वर्ण देह का खोना देखो।

स्वर्ण देह का सोना देखो।


..सर्वाधिकार सुरक्षित..

रचनाकार

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

१९.०७.२०२२ ०८.२८ पूर्वाह्न

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