शेर-ओ-शायरी..शिक़वा शिकायत किससे?

 

शेर-ओ-शायरी

शिक़वा शिकायत किससे?


इंसानियत घुटनों के बल,गिर पड़ी शायद।

आदमी ही आदमी के,खौफ़ के साये में है।


शिक़वा शिकायत किससे,कब तक करोगे।

कान बहरे हो चले हैं,कन लगों के साथ से।


आवाज़ आज़ाद हुई तो,कैद होने का डर है।

चुप रहूँ ! ना रहूँ यहाँ,अपना भी एक घर है।


बोलेगें खुलेआम,ग़लत के ख़िलाफ़ बोलेगें।

अगर चुप रहे तो,वतन से धोखा नहीं होगा।


हमें फ़ख्र है नाज है,मौकापरस्त यारों पर।

कम वक़्त में किताब को,पढ़ना सिखा गए।


कुछ लोग झूठ बोलने की,मशीन रखते हैं।

हर दिन हर रात का,सारा हिसाब रखते हैं।


दोस्ती अब नहीं रही,उस दौर सी मेरे अज़ीज।

सुदामा के लिए जो,ताज सिर का भूल जाएं।


फ़क़त कुछ चाहने के लिए, चाहते रहे।

तुम सौदागर हुए,दोस्त के क़ाबिल नहीं।


मुझे नफ़रत है उनसे,जो मुंह मीठी कहें।

पीठ पीछे खंजरों का खेल,जिनका शौक है।


सियासत की भी,एक हद होती है सुनो।

दोस्ती में सियासत,बुज़दिलों का काम है।


निज़ाम में तब्दीलियोँ की,दरकार बहुत है।

चिपक पड़े है कुर्सियों से,उनको उठाना चाहिए।


दरबार में ग़र,मक्खनबाजों का दख़ल हो।

जान कैसे पाओगे,कौन काला है यहाँ।


गड्ढे भर दिए गए,रिक्तियाँ भी भर गयीं।

उम्दा बंदोबस्त,साहब का नज़र आया।


हौसला चाहिए ग़र,सिस्टम को बचाना है।

गर्दनें अपनों की भी फंसेगी,जानते हैं आप।


बोलने दो उन्हें जो,बेशक़ ख़िलाफ़ बोलते हैं।

हो रहे बदहाल इंतज़ाम की,पोल खोलते हैं।


गर्दनें बच नहीं पाएगीं,गर फाइलें खोल दोगे।

आपका भी घर है जद में,चिंगारियों के दोस्तो।


वतन-परस्त कभी चुप नहीं रहते अज़ीज।

लहू की बूंद साँसों की नियामत,सब इसी की देन है।


जिंदगी चंद पल की है,जानते हैं आप भी।

मग़र ग़रूर से आंखे ढ़की,नज़र आता नहीं।


हकीम भी आखिरी वक़्त,मना कर जाएगा।

गुनाह की दौलत से,घर क्यों भर लिया तूने।


गुलाब आफ़ताब से,नाराज हो चला है।

हवा गुलाम हो चली है,आगाज़ हो चला है।


सर्वाधिकार सुरक्षित

💐रचनाकार💐

शिव शंकर झा "शिव"

स्वतन्त्र लेखक

व्यंग्यकार

शायर

२२.०७.२०२२ ०८.०४ पूर्वाह्न





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