वृद्ध आश्रम की बयार !
एक पिता के पुत्र साथियों चार,
चारो थे बस नाम के वैसे थे बेकार।
वैसे थे बेकार पिता ने खूब कमाया दाम,
खूब कमाया दाम गजब की हवा बनाई।
उनने अपने स्वर्णकाल में दौलत खूब कमाई
कार दिए और प्यार दिए पर दिए न वे संस्कार,
वक्त चढ़ा सीने पे खड़ा पिता हुए लाचार।
पिता हुए लाचार हुई फिर घर में खींचातानी,
करो इन्हें दर बदर बहू बेटों ने ठानी।
नहीं चाहिए इन दोनों की कनफोडू आवाज़,
गली में जाकर बड़े पुत्र ने कर डाला आगाज़।
कर डाला आगाज़ खलल यह बहुत डालते,
हुई विदाई निश्चित घर से कलम हुई बैचेन।
कलम हुई बैचेन दृश्य वह कहा ना जाए,
दर्प चूर सम्पदा धूर मन ही मन पछताए।
मन ही मन पछताएं किये जब कृत्य अनूठे।
अपने मद में रहे खूब मुफ़्लिश को लूटे,
अब तो जाना हुआ सुनिश्चित वृद्ध आश्रम भैया,
खुद ही अपनी डुबा लिए तुम अपनी नैया।
औलाद को सद्चरित्र नहीं किए,
अब जो विष फैल गया उसे कौन पिए।
अगर आप अपनी सन्तति को धर्म सिखाते,
शायद हो दरबदर आप इस ओर न आते।
चिंतित है ये देख व्योम और धरती प्यारे,
संक्रामक है व्याधि कौन अब इसको मारे।
अन्न अगर ईमान धरम का आप खिलाते,
है पूरा विश्वास नजर ना ऐसे श्रीमन आते।
सर्वाधिकार सुरक्षित
💐रचनाकार💐
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
२६.०७.२०२२ ०९.४५ अपराह्न