व्यंग्य
रेवड़ी सभ्यता !
रेवड़ी मुस्कराई,
सधे कदमों से पास आई।
एक बड़कू भैया चिल्लावत रहे,
मुफ्त रेवड़ी सभ्यता पर बतावत रहे।
रेवड़ी सभ्यता वर्तमान युग को चबा जाएगी,
या फिर कर्ज और सूद तले दबा जाएगी।
मेरी समझ में नहीं आया वे क्या बोल गए,
शायद ! अपने सूबेदारों की पोल खोल गए।
रेवड़ी गुस्से में थी तिलमिलाई !
पास आते ही तीव्र ध्वनि टकराई।
क्या आप भी गांधी जी के बंदर से हो गए हो,
या मुफ्त की रेवड़ियाँ खाते खाते सो गए हो।
अरे ! रेवड़ी महोदया जी हो क्या गया,
मैनें धैर्य,शालीनता से सविनय कहा।
क्यों इतनी तिलमिलाई हो,
वैसे भी बहुत दिन बाद,ऊपर से,
गुस्से से तरबतर आयी हो।
ना सुनोगे ना बोलोगे ना देखोगे !
रेवड़ी जी बोलती गयीं बोलती गयीं,
कर्ज से दबीं सरकारों की पोल खोलती गयीं,
खोलती गयीं।
सूबे कर्ज के बोझ तले दबे जाते हैं,
और सूबेदार रोज रेवड़ियाँ चबे जाते हैं।
कौन सा दल है जो मुफ्तखोरी नहीं बढ़ाता,
फालतू की तकरीरें,कोई रोक नहीं लगाता।
कई राज्यों में सूद कुल वार्षिक आय से,
तीस से साठ प्रतिशत के आसपास है।
रेवड़ी बहुत ही असमंजस में दिखी,
अब तो बस सन्यास लेने का मन हो रहा है।
मैं अपने नाम पर सूबे को और कर्ज से,
सिसकता नहीं देख पाऊँगी।
मैं वन गमन करूंगी इस वातावरण में,
शायद नहीं रह पाऊँगी।
एक बात और बताइए कोई भी !
ये वे सब अपात्रों को भी! रेवड़ी बांट रहे हैं,
ये वे कौनसा देश कर्ज मुक्त बना रहे हैं।
कर्ज के बोझ से मेरी रीड टूट रही है,
सरकार मुफ्त बाँटकर वाहवाही लूट रही है।
रेवड़ी क्षुभित व्यथित आखिरी बात बोली,
रोष में होश में हर बात साफ साफ बोली।
मुझे कोई तो बताए सामने आए,
उनके हाथ से बटती हूँ तब रेवड़ी !
इनके हाथ से बटती हूँ तब जनकल्याण।
अरे ! छोड़िए ये फालतू के गाल बजाना,
क्या रेवड़ी है ? क्या जनकल्याण ? बताना।
मुझे कर्ज ले ले कर मत बाँटिए !
बांटना ही है तो रोजगार बाँटिए।
बस रोजगार बांटिए रोजगार ही बाँटिए।
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
२८.०७.२०२२ ११.५५ पूर्वाह्न