शेर-ओ-शायरी
💐बादलों से गुफ़्तगू💐
बादलों की बादलों से,गुफ़्तगू सुनिए ज़नाब!
इस शहर से उड़ चलो,सब यहां पत्थर के हैं।
बारिशों के बीच में,दादुर ना मेढ़क हैं यहाँ।
मोर कोयल हरा तोता,बस यहां पिजरे में हैं।
रोप जिनको आए थे,तुम मीडिया के सामने।
वे ख़ाक होते जा रहे हैं,क्यों नहीं जाते उधर।
एक पौधे पर चढ़े,देखे गए कुछ आदमी।
वाह वाही मीडिया,फिर हुए गुम आदमी।
परिंदे ख़ौफ़ से आशियाना,बदल लेगें सुनो।
तुम तो बस फोटो खिचाओ,आपसे उम्मीद क्या?
दरख्तों की महफ़िल सजी,और दर्द गहरा हो गया।
शहर से हम अलविदा से,हो गए क्यों दोस्तो।
शहर में हर ओर,पत्थर के दरख्तों की फसल है।
सांस क्या ये दे सकेंगे,फ़रमाइये कुछ दोस्तो।
नकली घास नकली गुल्म,और नकली आदमी,
असली होता जा रहा गुम,गुमशुदा है आदमी।
घरों में नकली परिंदे पेड़,सबके सब हैं दोस्तो।
नकलियत की गिरफ्त में,यूँ फँस रहा है आदमी।
हम दिखावे के गिरोह के,सरग़ना बनते गए।
हँसी नकली चमक नकली,और भी कुछ दोस्तो।
बिल्लियों के साथ में,बल्लियों से उछलते देखिए।
गोद में कुत्ता लिटाए, रूप वाला देखिए।
होश फाख्ता हुए,हाथ जब खाली दिखे।
सांस जब घुटने लगी,पत्थरों के बाग में।
हँसी चेहरे पर नहीं,क्या वज़ह मेरे अज़ीज।
खुद ही खुद को फँसा बैठा,खौफ़ के साए में है।
बस तपिश से ही,परिंदे परों को जला बैठे।
बाज से कैसे लड़ोगे,जो घात में बैठा हुआ।
छिप छिप के घरौंदों में,उम्र पूरी कर गए।
जिंदा तो देखे नहीं,जिंदगी कर दी बसर।
जिंदगी ये शख़्सियत,बरकत उसी की देन है।
सिर झुके तो बस उसी,रब के कदमों में झुके।
रचनाकार
शिव शंकर झा "शिव"
स्वतन्त्र लेखक
व्यंग्यकार
शायर
०१.०८.२०२२ ०८.५५पूर्वाह्न